________________ नामाधिकार निरूपण] 2. बितिया उवदेसणे-उपदेश क्रिया से ब्याप्त कर्म के प्रतिपादन में द्वितीया विभक्ति होती है। क्रिया में प्रवर्तित कराये जाने की इच्छा उत्पन्न करने को उपदेश कहते हैं और जिस पर क्रिया का फल पड़े वह कर्म है। इसकी बोधक 'अम्, प्रौट, शस्' यह विभक्ति हैं / 3. तइया करणम्मि–क्रियाफल की सिद्धि में सबसे अधिक उपकारक, सहायक को करण कहते हैं। इस करण में 'टा, भ्याम्, भिस्' यह तृतीया विभक्ति होती हैं / / 4. चउत्थी संपयावणे-जिसके लिये क्रिया होती है, उसे सम्प्रदान कहते हैं और इस संप्रदान में ‘ड भ्याम्, भ्यस्' विभक्ति होती हैं। 5. पंचमी या अपायाणे-जिससे अलग होने या पृथक्ता का बोध हो, उसे अपादान कहते हैं। इस अपादान को बताने के लिये 'उसि, भ्याम्, भ्यस्' यह पंचमी विभक्ति होती हैं। 6. छट्टी सस्सामिवायणे-स्व-स्वामित्व सम्बन्ध का प्रतिपादन करने में 'उस्, प्रोस्, आम्' यह षष्ठी विभक्ति होती हैं। 7. सत्तमी सणिणधाणत्थे-सन्निधान अर्थात् क्रिया करने के प्राधार या स्थान का बोध कराने में 'डि, प्रोस् , सुप' यह सप्तभी विभक्ति होती हैं। 8. अट्टमाऽऽमतणी भवे---किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के अर्थ में संबोधनरूप आठवीं विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार सामान्य से आठ विभक्तियों का कथन करके अब इनको उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं। 261. [2] तत्व पढमा विमत्ती निद्देसे सो इमो अहं व ति। बितिया पुण उवदेस भण कुणसु इमं व तं व त्ति 2 // 56 // ततिया करणम्मि कया मणियं व कयं व तेण व मए वा 3 // हंदि णमो साहाए हवति चउत्थी पयाणम्मि 4 // 60 // अवणय गिव्ह य एत्तो इतो त्ति वा पंचमी अपायाणे 5 / छट्ठी तस्स इमस्स व गयस्स वा सामिसंबंधे 6 // 61 // हवति पुण सत्तमी तं इमम्मि आधार काल भावे य 7 / आमंतणी भवे अट्टमी उ जह हे जुवाण! ति 8 // 62 // से तं अट्ठणामे। [261-2] 1. निर्देश में प्रथमा विभक्ति होती है / जैसे—वह, यह अथवा मैं / 2. उपदेश में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे इसको कहो, उसको करो आदि / 3. करण में तृतीया विभक्ति होती है / जैसे--उसके और मेरे द्वारा कहा गया अथवा उसके और मेरे द्वारा किया गया / 4. संप्रदान, नमः तथा स्वाहा अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे विप्राय गां ददातिब्राह्मण को (के लिये) गाय देता है / नमो जिनाय-जिनेश्वर के लिये मेरा नमस्कार हो। अग्नये स्वाहा—अग्नि देवता को हवि दिया जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org