________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [243 संख्यात, असंख्यात प्रादि रूप अपने निविभाग भागात्मक अंशों-प्रदेशों से निष्पन्न है। प्रदेशों से निष्पन्न होना ही इसका निजस्वरूप है और इसी रूप से यह जाना जाता है। अतएव प्रदेशों से निष्पन्न होने वाले प्रमाण का नाम प्रदेशनिष्पन्न है तथा विभाग-भंग-विकल्प से निष्पन्न होने वाले अर्थात् स्वगत प्रदेशों को छोड़कर दूसरे विशिष्ट भाग, भंग या विकल्प द्वारा निष्पन्न होने वाले को विभागनिष्पन्न कहते हैं। उक्त दोनों प्रकार के क्षेत्रप्रमाणों का विशेष वर्णन इस प्रकार है-- प्रदेशनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण 331. से कि तं पदेसणिप्फण्णे ? पदेसणिप्फण्णे एगपदेसोगाढे दुपदेसोगाढे जाव संखेज्जपदेसोगा असंखिज्जपदेसोगा। से तं पएसणिप्फण्णे। [331 प्र.] भगवन् ! प्रदेशनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [331 उ.] आयुष्मन् ! एक प्रदेशावगाढ, दो प्रदेशावगाढ यावत् संख्यात प्रदेशावगाढ, असंख्यात प्रदेशावगाढ क्षेत्ररूप प्रमाण को प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहते हैं। विवेचन--सूत्र में क्षेत्रप्रमाण के प्रथम भेद प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण का स्वरूप बतलाया है / क्षेत्र का अविभागी अंश (जिसका विभाग न किया जा सके और न हो सके ऐसे) भाग को प्रदेश कहते हैं / ऐसे प्रदेश से जो क्षेत्रप्रमाण निष्पन्न हो, वह प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहलाता है / यहाँ क्षेत्र शब्द.ग्राकाश के अर्थ में प्रयुक्त हया है। प्राकाश के दो भेद हैं—लोकाकाश और अलोकाकाश / धर्मास्तिकाय आदि षड द्रव्य जितने अाकाश रूप क्षेत्र में अवगाढ होकर स्थित हैं, उसे लोकाकाश और इसके अतिरिक्त कोरे आकाश को अलोकाकाश कहते हैं। यद्यपि अलोकाकाश में आकाशास्तिकाय द्रव्य का सद्भाव है, फिर भी उसे अलोकाकाश इसलिये कहते हैं कि लोक और अलोक के नियामक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य वहाँ नहीं हैं। इनका सद्भाव और असद्भाव ही आकाश के लोकाकाश, अलोकाकाश विभाग का कारण है। प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण एकप्रदेशावगाठादि रूप है। क्योंकि वह एक प्रदेशादि अवगाढरूप क्षेत्र एक प्रादि क्षेत्रप्रदेशों से निष्पन्न हुआ है और ये एकादि प्रदेश अपने निजस्वरूप से ही प्रतीति में आते हैं, अतएव इनमें प्रमाणता जानना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि क्षेत्र स्वप्रदेशों की अपेक्षा जब स्वस्वरूप से जाना जाता है तब 'प्रमीयते यत् तत् प्रमाणम्'—जो जाना जाये वह प्रमाण है, इस प्रकार के कर्मसाधन रूप प्रमाण शब्द की वाच्यता से वह एकादि प्रदेश रूप क्षेत्र प्रमाण होता है, परन्तु जब 'प्रमीयतेऽनेन यत्तत् प्रमाणम्' इस प्रकार प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति करणसाधन में की जाती है तब क्षेत्र स्वयं प्रमाण रूप न होकर एक प्रदेशादि उसका स्वरूप प्रमाण होता है। यद्यपि आकाश रूप क्षेत्र तो एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेशात्मक है। लेकिन सूत्र में 'एगपदेसोगाढे, दूपदेसोगाढे जाव संखेज्जपदेसोगाढे असंखिज्जपदेसोगाढे' पद देने का कारण यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org