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________________ 242] [अनुयोगद्वारसूत्र सूत्र में कर्ममाषक से पूर्व के गुंजा आदि के वजन को नहीं बताया है। उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- गुंजा, रत्ती, घोंगची मौर चणोटी ये चारों समानार्थक नाम हैं। मुंजा एक लता का फल है / इसका प्राधा भाग काला और आधा भाग लाल रंग का होता है / इसके भार के लिये पूर्व में कहा जा चुका है / सवा गुंजाफल (रत्ती) की एक काकणी होती है। त्रिभागन्यून दो गुंजा अर्थात् पौने दो गुंजा का एक निष्पाव होता है / इसके बाद के कर्ममाषक आदि का प्रमाण सूत्र में उल्लिखित है। कर्ममाषक, मंडलक और सुवर्ण के भारप्रमाण का विवरण भिन्न-भिन्न रीति से बताने का कारण यह है कि वक्ता और श्रोता, केता और विक्रेता को अपने अभीष्ट प्रमाण में सुवर्ण आदि लेनेदेने में एकरूपता रहे। जैसे जो व्यक्ति सौ की संख्या को न जानता हो, मात्र बीस तक की गिनना जानता हो, उसे संतुष्ट और आश्वस्त करने के लिये बीस-बीस को पांच बार अलग-अलग गिनकर समझाया कर्ममाषक आदि का अलग-अलग रूप से प्रमाण बताने का भी यही प्राशय है। कथनभेद के सिवाय अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। सुवर्ण, चांदी को तो सभी जानते हैं / शास्त्रों में रत्नों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं 1 कर्केतनरत्न, 2 वज्ररत्न, 3 वैडूर्य रत्न, 4 लोहिताक्षरत्न, 5 मसारगल्लरत्न, 6 हंसगर्भरस्न, 7 पुलकरत्न, 8 सौगन्धिकरत्न, 9 ज्योतिरत्त, 10 अञ्जनरल, 11 अंजनपुलकरत्न, 12 रजतरत्न, 13 जातरूपरत्न, 14 अंकरल, 15 स्फटिकरत्न, 16 रिष्टरत्न / से तं विभागनिप्फणे' पद द्वारा सूचित किया है कि मान से लेकर प्रतिमान तक विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के पांच भेद हैं और उनका वर्णन उपर्युक्त प्रकार से जानना चाहिये तथा 'से तं दव्वप्पमाणे' यह पद द्रव्यप्रमाण के वर्णन का उपसंहारबोधक है कि प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न के भेदों का वर्णन करने के साथ द्रव्यप्रमाण समग्ररूपेण निरूपित हो गया। अब क्रमप्राप्त प्रमाण के दूसरे भेद क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा करते हैं। क्षेत्रप्रमाणप्ररूपण 330. से कि तं खेत्तप्पमाणे? खेतप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पदेसनिष्फण्णे य 1 विभागणिप्फण्णे य 2 / [330 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [330 उ.] आयुष्मन् ! क्षेत्रप्रमाण दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है ! वह इस प्रकार--- 1 प्रदेश निष्पन्न और 2 विभागनिष्पन्न / विवेचन--द्रव्यप्रमाण के मुख्य भेदों की तरह इस क्षेत्रप्रमाण के भी दो भेद हैं और उन भेदों के नाम भी वही हैं जो द्रव्यप्रमाण के भेदों के हैं। स्वगुणों की अपेक्षा प्रमेय होने से द्रव्य का निरूपण द्रव्यप्रमाण के द्वारा किया जाता है। किन्तु क्षेत्रप्रमाण के द्वारा पुनः उसी द्रव्य का वर्णन इसलिये किया जाता है कि क्षेत्र एक, दो, तीन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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