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________________ 244] [अनुयोगद्वारसूत्र यहाँ लोकाकाश रूप क्षेत्र को ग्रहण किया है और लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश होते हैं और उन्ही में जीव, पुद्गल आदि द्रव्य अवगाढ होते हैं। द्रव्य की अपेक्षा आकाश एक है और उसमें प्रदेशों की कल्पना का आधार है पुद्गलद्रव्य / पुद्गलद्रव्य के दो रूप हैं--परमाणु और स्कन्ध / परमाणु और स्कन्ध का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। एक परमाणु जितने क्षेत्र को अवगाढ करके रहता है, उतने क्षेत्र को एक प्रदेश कहते हैं / आकाश का स्वभाव अवगाहना देने के कारण उसके एक प्रदेश में परमाणु से लेकर अनन्त परमाणुओं के पिंड रूप स्कन्ध का भी अवगाह हो सकता है / इसी बात की ओर संकेत करने के लिये सूत्र में एकप्रदेशावगाढ से लेकर असंख्यातप्रदेशावगाढ तक पद दिये हैं। यही प्रदेशनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण है। अब विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का विचार करते हैं विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण 332. से कि तं विभागणिफण्णे ? विभागणिफण्णे अंगुल विहत्थि रयणी कुच्छो घणु गाउयं च बोद्धव्वं / __ जोयणसेढी पयरं लोगमलोगे वि य तहेव // 95 // [332 प्र.] भगवन् ! विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का क्या स्वरूप है ? 6332 उ.] आयुष्मन् ! अंगुल, वितस्ति (बेंत, बालिश्त), रत्ति (हाथ) कुक्षि, धनुष, गाऊ (गव्यूति), योजन, श्रेणि, प्रतर, लोक और अलोक को विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण जानना चाहिये / 95 विवेचन—सूत्र में विभागनिष्पन्नक्षेत्रप्रमाण का वर्णन किया है। इसका पृथक् रूप से निरूपण करने का कारण यह है कि क्षेत्र यद्यपि स्वगत प्रदेशों की अपेक्षा प्रदेशनिष्पन्न ही है, परन्तु जब स्वरूप से उसका वर्णन न किया जाकर सुगम बोध के लिये उन प्रदेशों का कथन अंगुल अादि विभागों के द्वारा किया जाता है, तब उसे विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहते हैं / अर्थात् क्षेत्रनिष्पन्नता से इस विभागनिष्पन्नता में यह अन्तर है कि क्षेत्रनिष्पन्नता में क्षेत्र अपने प्रदेशों द्वारा जाना जाता है, लेकिन विभागनिष्पन्नता में उसी क्षेत्र को विविध अंगुल, वितरित आदि से जानते हैं। यह अंतर प्रमाण शब्द की करणसाधन रूप व्युत्पत्ति को अपेक्षा से जानना चाहिये / विभागनिष्पन्न की प्राद्य इकाई अंगुल है / अतएव अब अंगुल का विस्तार से विवेचन करते हैं। अंगुलस्वरूपनिरूपण 333. से कि तं अंगुले ? अंगुले तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-आयंगुले 1 उस्सेहंगुले 2 पमाणंगुले 3 / [333 प्र.] भगवन् ! अंगुल का क्या स्वरूप है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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