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________________ [31 भुत निरूपण] [35 प्र.] भगवन् ! आगम की अपेक्षा द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है ? [35 उ.] आयुष्मन् ! जिस साधु आदि ने श्रुत यह पद सीखा है, स्थिर, जित, मित, परिजित किया है यावत् जो ज्ञायक है वह अनुपयुक्त नहीं होता है आदि / यह पागम द्रव्यश्रुत का स्वरूप है / विवेचन-सूत्र में पागम द्रव्यश्र त का स्वरूप बतलाया है कि थ तपद के अभिधेय--प्राचारादि शास्त्रों को जिसने सीख तो लिया है, किन्तु उसके उपयोग से शून्य है, इस कारण वह पागम से द्रव्यश्र त है। __ 'जाव कम्हा' पद द्वारा आवश्यक विषयक पूर्वोक्त शब्द नय आदि की मान्यता सम्बन्धी सूत्रालापक तक का अतिदेश किया गया है जो इस प्रकार है णामसमं घोषसमं अहीणवखरं अणक्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णधोसं कंठोढविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं / से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए णो अणुप्पेहाए / कम्हा ? 'अणु वयोगो दव्व' मिति कटु / णेगमस्स एगो अणुवउत्तो पागमयो एगं दवाबस्सयं (दव्वसुयं) दोण्णि अणुवउत्ता आगमयो दोणि दव्वावस्सयाई (दव्वसुयाई) तिण्णि अणुवउत्ता प्रागमो तिणि दवावस्सयाई (दव्वसुयाई) एवं जावड्या अणुबउत्ता तावइयाई ताई अंगमस्स प्रागमयो दवावस्सयाई (दव्वसुयाई)। एवमेव बबहारस्स वि। संगहस्स एगो वा प्रणेगा वा अणुबउत्तो वा अणुवउत्ता वा प्रागमो दवावस्मयं (दब्वसुयं) वा दव्वावस्सयाणि (दव्वसुयाणि) वा से एगे दवावस्सए (दब्वसुए)। उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमनो एगं दवावस्सयं (दव्वसुर्य), पुहुत्त नेच्छइ / तिण्हं सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्त अवत्थू / कम्हा ? ........... / इनका अर्थ द्रव्यावश्यक के प्रसंग में किये गये गये अर्थ के अनुरूप है। किन्तु सर्वत्र आवश्यक के स्थान में श्रु त शब्द का प्रयोग करना चाहिए।' नोप्रागमद्रव्यश्रुत 36. से कि तं णोआगमतो दन्नसुयं ? णोआगमतो दव्वसुयं तिविहं पन्नत्तं / तं जहा-जाणयसरीरदव्वसुयं 1 भवियसरीरदव्वसुर्य 2 जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्यसुयं 3 / / |36 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है ? [36 उ.] आयुष्मन् ! नोयागमद्रव्यश्रु त तीन प्रकार का कहा है। जैसे -1, ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रु त, 2. भव्यशरीरद्रव्यश्रत, 3. ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यथ त ! विवेचन-सूत्र में नोग्रागमद्रव्यावश्यक के समान नोग्रागमद्रव्यश्रुत के भी तीन भेदों के नामों का उल्लेख किया है / क्रम से अब इन तीनों का स्पष्टीकरण करते हैं / 1. देखें सूत्र संख्या 14, 15 का अर्थ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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