________________ 30) P4 अनुयोगद्वारसूत्र 32. से कि तं ठवणासुयं ? ठवणासुयं जगणं कटुकम्मे वा जाव सुए इ ठवणा ठविज्जति / से तं ठवणासुयं / [32 प्र.] भगवन् ! स्थापनाच त का स्वरूप क्या है ? [32 उ.] अायुष्मन् ! काष्ठ यावत् कौड़ी आदि में यह श्रत है, ऐसी जो स्थापना, कल्पना या आरोप किया जाता है, वह स्थापनाश्रुत है / 33. नाम-ठवणाणं को पतिविसेसो ? नामं आवहिा, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा। [33 प्र.] भगवन् ! नाम और स्थापना में क्या विशेषता-अन्तर है ? [33 उ.] आयुष्मन् ! नाम यावत्कथिक होता है, जबकि स्थापना इत्वरिक और यावत्कथिक दोनों प्रकार की होती है। विवेचन यहाँ नाम और स्थापनारूप श्रत का स्वरूप बतलाने के साथ उन दोनों में अन्तर का निर्देश किया है। नाममात्र से श्रुत नामश्रुत है--नाम्ना--नाममात्रेण श्रुतं नामश्र तमिति-- इस समास के अनुसार जिस जीव, अजीव आदि का श्रुत यह नाम रख लिया जाता है, वह नामश्रुत है / जीव अादि का श्रत नाम रखने का कारण पूर्वोक्त नामावश्यक के कथनानुसार जानना चाहिये / स्थापनाश्रत का विवेचन भी पूर्वोक्त स्थापनावश्यक के अनुरूप है। किन्तु आवश्यक के बदले यहाँ श्रुत शब्द का प्रयोग करना चाहिये। अतएव तदाकार, अतदाकार काष्ठादि अथवा काष्ठादि से निमित्त प्राकृति में जो श्रुतपठनादि क्रियावन्त साधु आदि की स्थापना की जाती है, यह स्थापनाथत है। नाम और स्थापना आवश्यक के सदश ही नाम और स्थापना श्रुत में भी अन्तर जानना चाहिये कि नाम का प्रयोग वस्तु के सद्भाव रहने तक होता है जबकि स्थापना वस्तु के सद्भाव पर्यन्त और यथायोग्य अल्पकाल के लिये भी की जा सकती है। द्रव्यश्रत के भेद 34. से किं तं दध्वसुयं ? दव्वसुयं दुविहं पण्णत्तं / तं जहा आगमतो य 1 नोआगमतो य 2 / [34 प्र.] भगवन् ! द्रव्यश्र त का क्या स्वरूप है ? [34 उ.] अायुष्मन् ! द्रव्यश्रुत दो प्रकार का है। जैसे----१ आगमद्रव्यश्रुत, 2 नोग्रागमद्रव्यश्रुत / प्रागमद्रव्यश्रत 35. से कि तं आगमतो दव्वसुयं ? आगमतो दध्वसुयं जस्स गं सुए ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव कम्हा? जइ जाणते अणुवउत्ते ण भवइ / से तं आगमतो दव्वसुयं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org