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________________ [अनुयोगद्वारसूत्र जो जीव शंखप्रायोग्य तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, श्रीदारिक-अंगोपांग आदि नामकर्मों एवं नीचगोत्र को विपाकतः वेदन करते हैं अर्थात् तदनुकल कर्मप्रकृतियों के उदय में वर्तमान है, वे भावशंख (संखा) कहलाते हैं / यही भावसंख्या का अर्थ है / इस भावसंख्या के वर्णन के साथ प्रमाणद्वार की वक्तव्यता पूर्ण हो जाती है / // इस प्रकार से प्रमाण पद समाप्त हुआ / / अब क्रमप्राप्त उपक्रम के चतुर्थ भेद वक्तव्यता का निरूपण करते हैं / वक्तव्यता के भेद 521. से कि तं वत्तब्वया ? वत्तब्धया तिविहा पण्णत्ता / तं०-ससमयवत्तव्वया परसमयक्त्तव्वया ससमयपरसमयबत्तन्वया / [521 प्र.] भगवन् ! वक्तव्यता का क्या स्वरूप है ? [521 उ.] आयुष्मन् ! वक्तव्यता तीन प्रकार की कही गई है, यथा---स्वममयवक्तव्यता, 2. परसमयवक्तव्यता और 3. स्वसमय-परसमयवक्तव्यता / वक्तव्यता अध्ययन-पादिगत प्रत्येक अवयव के अर्थ का यथासंभव प्रतिनियत विवेचन वक्तव्यता के तीन भेद क्यों?—प्रस्तुत में समय का अर्थ सिद्धान्त या मत है। अतः स्व-अपने सिद्धान्त का प्रस्तुतीकरण स्वसमयवक्तव्यता, पर--अन्य के सिद्धान्त का निरूपण परसमयवक्तव्यता एवं स्वपर-दोनों के सिद्धान्तों का विवेचन करना स्वपरसमयवक्तव्यता है / इनकी पृथक्-पृथक् व्याख्या आगे की जाती है। स्वसमयवक्तव्यतानिरूपण 522. से कि तं ससमयवत्तवया ? ससमयवत्तब्वया जत्थ णं ससमए आविज्जति पाणविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से तं ससमयवत्तवया / [522 प्र. भगवन् ! स्वसमयवक्तव्यता क्या है ? (522 उ.] श्रायुष्मन ! अविरोधी रूप से स्वसिद्धान्त के कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन करने को स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं / यही स्वसमयवक्तव्यता है / विवेचन--पूर्वापरविरोध न हो, इस प्रकार अपने सिद्धान्त की अविरोधी क्रमबद्ध व्याख्या करने को स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं। यद्यपि प्राघविज्जति आदि उवदंसिज्जति पर्यन्त शब्द सामान्यतः समानार्थक-से प्रतीत होते हैं, लेकिन शब्दभेद से अर्थभेद होने से उनका पृथक्-पृथक् प्राशय इस प्रकार है१. अध्ययनादिषु प्रत्यवधवं यथासंभवं प्रतिनियतार्थकथनं बक्तव्यता। -अनुयोग. मलधारीया वृत्ति, पृ. 243 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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