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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [423 मिया सिद्धा निगोयजीवा वणस्सई काल पुग्गला चेव / सवमलोगागासं छप्पेतेऽणतपक्खेवा // ' अर्थात् --1. सिद्ध जीव, 2. निगोद के जीव, 3. वनस्पतिकायिक, 4. तीनों कालों (भूत, वर्तमान, भविष्यत द्रव्य तथा 6. लोकाकाश और अलोकाकाश प्रदेश 2 इनको मिलाकर फिर सर्व राशि का तीन वार वर्ग करके उस राशि में केवलद्विक-केवलज्ञान, केवलदर्शन--की अनन्त पर्यायों का प्रक्षेप करने पर उत्कृष्ट अनन्तानन्त की संख्या का परिमाण होता है। यही गणनासंख्या की वक्तव्यता है। अब संख्या के अंतिम प्रकार भावसंख्या का निरूपण करते हैं। भावसंख्यानिरूपण 520. से कितं भावसंखा ? भावसंखा जे इमे जीवा संखगइनाम-गोत्ताई कम्माई वेदेति / से तं भावसंखा / से तं संखप्पमाणे / से तं भावप्पमाणे / से तं पमाणे। // पमाणे त्ति पयं सम्मत्तं / / [520 प्र.] भगवन् ! भावसंख्या (शंख) का क्या स्वरूप है ? [520 उ.] आयुष्मन् ! इस लोक में जो जीव शंखगतिनाम-गोत्र कर्मादिकों का वेदन कर रहे हैं वे भावशंख है। यही भाव संख्या है, यही भावप्रमाण का वर्णन है तथा यहीं प्रमाण सम्बन्धी वक्तव्यता पूर्ण हुई। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में भावसंख्या का निरूपण करके प्रमाण पद की वक्तव्यता का उपसंहार किया है। 1. यह छह क्षेपक टीका तथा त्रिलोकसार गाथा 49 में वर्णित है। 2. यद्यपि मुल गाथा में अलोक पद है। लेकिन उपलक्षण से लोक का भी ग्रहण कर लेना चाहिये / अर्थात यहाँ लोक और अलोक दोनों प्राकाश विवक्षित हैं / 3. ज्ञेयपदार्थ अनन्त होने से केवलतिक की पर्याय भी अनन्त हैं। 4. यह उत्कृष्ट अनन्तानन्त का परिमाण बोध के लिये है, लेकिन लोकाकाश में विद्यमान पदार्थों के मध्यम अनन्तानन्त प्रमाण होने से मध्यम अनन्तानन्त ही उपयोग में लिया जाता है। उत्कृष्ट अनन्तानन्त को सिद्धान्त में उपयोग में न जाने के कारण ग्राह्य नहीं माना है। उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में दस क्षेपकों एवं उत्कृष्ट अनन्तानन्त मानने, उसके निर्माण की विधि एवं छह क्षेपकों के मिलने का मत कार्मग्रन्थिक प्राचार्यों का प्रतीत होता है। कार्मग्रन्थिक प्राचार्यों की असंख्यात और अनन्त संख्या के भेदों को बनाने की प्रक्रिया भी सिद्धान्त से भिन्न है। इसका विस्तार से वर्णन पड़शीति (चतुर्थ कर्मग्रन्थ, श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति ब्यावर) में पृ. 364 से 384 में देखिये। 5. यद्यपि संख्या शब्द से गणना का बोध होता है, किन्तु पूर्व में बताया है कि प्राकृत भाषा में संख्या शब्द शंख का भी वाचक है। इसलिये यहाँ 'भावसंखा' शब्द द्वीन्द्रिय जीव 'शंख' के लिये प्रयुक्त हुआ जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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