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________________ भानु नि 117. एयाए णं संगहस्स अटुपयपरूवणयाए कि पोयणं ? एयाए णं संगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया कोरइ। [117 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत इस अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है ? [117 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत इस अर्थपदग्ररूपणता द्वारा संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता (भंगों का निर्देश) की जाती है। विवेचन–इस सूत्र द्वारा संग्रहनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का प्रयोजन स्पष्ट किया है कि इससे भगसमुत्कीर्तनता रूप प्रयोजन सिद्ध होता है / इस भंगसमुत्कीर्तनता की व्याख्या निम्न प्रकार है--- संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता एवं प्रयोजन / 118. से किं तं संगहस्स भंगसमुक्कितणया ? संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आणुपुब्बी 1 अस्थि प्रणाणुपुरी 2 अस्थि अवत्तवए 3 अहवा अस्थि आणुपुव्वी य प्रमाणुपव्धी य 4 अहवा अस्थि आणुपन्दो य प्रवत्तम्बए य 5 अहवा अस्थि प्रणाणुयुम्वी य अवतन्वए य 6 अहवा अस्थि प्राणुपुच्ची य प्रणाणुपुथ्वी य अवत्तवए य 7 / एवं एए सत्त भंगा / से तं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया / [118 प्र.] भगवन् ! संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या स्वरूप है ? / 118 उ.] आयुष्मन् ! संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप इस प्रकार है 1. प्रानुपूर्वी है, 2. अनानपूर्वी है, 3. अवक्तव्यक है। अथवा–४. प्रानुपूर्वी और अनानुपूर्वी है, 5. ग्रानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक है, 6. अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक है। अथवा-७. आनुपूर्वीअनानुपूर्वी-अवक्तव्यक है। इस प्रकार ये सात भंग होते हैं / यह प्ररूपणा संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप है। 116. एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयणं ? एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए संगहस्स भंगोवदंसणया कज्जति / [119 प्र. भगवन् ! इस संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? [119 उ.] आयुष्मन् ! इस संग्रहनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता के द्वारा भंगोपदर्शन किया जाता है। विवेचन--इन दो सूत्रों में भंगसमुत्कीर्तनता का आशय और प्रयोजन स्पष्ट किया है / भंगसमुत्कीर्तनता में मूल तीन पद हैं--प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य / इनके वाच्यार्थ पूर्व में स्पष्ट किये जा चके हैं। इन तीनों पदों के पृथक-पृथक स्वतन्त्र तीन भंग, दो-दो पदों के संयोग से तीन भंग और तीनों पदों के संयोग से एक भंग बनता है। इस प्रकार तीनों पदों के स्वतन्त्र और संयोगज कुल सात भंग होते हैं। इन भंगों के कथन द्वारा भंगोपदर्शनता रूप प्रयोजन सिद्ध होता है, अतएव अब भंगोपदर्शनता को स्पष्ट करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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