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________________ 122] [अनुयोगहारसूत्र . [195-1 प्र.] भगवन् ! नंगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वीद्रव्य कालापेक्षा (प्रानुपूर्वी रूप में) कितने काल तक रहते हैं। [195-1 उ.] अायुष्मन् ! एक प्रानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा जघन्य स्थिति तीन समय की और उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात काल की है / अनेक आनुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा स्थिति सर्वकालिक है / [2] गम-ववहाराणं अणाणुपुग्विदव्वाई कालो केवचिरं होंति ? एगदन्नं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं एक्कं समयं, नाणादम्बाइं पडुच्च सम्वद्धा। [195-2 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वीद्रव्य कालापेक्षा (अनानुपूर्वी रूप में) कितने काल तक रहते हैं ? [195-2 उ.] आयुष्मन् ! एक द्रव्यापेक्षया तो अजघन्य और अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय की तथा अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वकालिक है / [3] गम-ववहाराणं अवत्तव्वयदव्वाइं कालतो केवचिरं होंति ? एणं दव्वं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया, नाणादब्वाइं पडुच्च सव्वद्धा। [195-3 प्र.] भगवन ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अवक्तव्यकद्रव्य कालापेक्षया (प्रवक्तव्यक रूप में) कितने काल रहते हैं ? [195-3 उ.] प्रायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति दो समय की है और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा स्थिति सर्वकालिक है / विवेचन----यहाँ अनुगम के पांचवें कालद्वार की प्ररूपणा की है। एक पानपूर्वीद्रव्य की जघन्य स्थिति तीन समय और उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात समय की बताने का कारण यह है कि ग्रानपूर्वीद्रव्यों में तीन समय की स्थिति बाले द्रव्य सबसे कम हैं और वे तीन समय तक ही प्रानपवीं के रूप में रहते हैं। इसलिये एकवचनान्त पानपर्वी िद्रव्यों की जघन्य स्थिति तीन समय प्रमाण कही है और असंख्यात समय की स्थिति कहने का कारण यह है कि वह द्रव्य असंख्यात काल के बाद ग्रानुपूर्वी रूप में रहता ही नहीं है। नाना पानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा स्थिति सर्वकालिक इसलिये है कि नाना प्रानुपूर्वी द्रव्यों का सदैव सद्भाव रहता है। एक-एक अनानपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्य की स्थिति मात्र क्रमश: एक समय और दो समय प्रमाण होने से इन दोनों के विषय में जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा विचार किया जाना सम्भव नहीं होने से अजघन्य और अनुत्कृष्ट काल स्थिति एक और दो समय की बतलाई है। क्योंकि एक समय की स्थिति वाला द्रव्य अनानुपूर्वी और दो समय की स्थिति वाला द्रव्य प्रवक्तव्यक है / नाना अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्य सर्वकाल में सम्भव होने से उनकी स्थिति सर्वाद्धा प्रमाण है। (ङ 6.) अन्तरप्ररूपणा 196. [1] णेगम-ववहाराणं आणुपुग्विदव्याणमंतरं कालतो केवचिरं होति ? एगदव्वं पडुच्च जहरणेणं एग समयं उक्कोसेणं दो समया, नाणादब्वाइं पडुच्च नत्थि अंतरं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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