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________________ आनुपूर्वी निरूपण |123 196-1 प्र. भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों का कालापेक्षया अन्तर कितने समय का होता है ? [196-1 उ.] अायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है / किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। [2] गम-ववहाराणं प्रणाणुपुग्विदव्वाणं अंतरं कालतो केवचिरं होति ? एगदव्वं पडुच्च जहण्णेणं दो समया उपकोसेणं असंखेज्जं कालं, णाणादव्याई पडुनच गत्पि अंतरं / [196-2 प्र.] भगवन् ! कालापेक्षया नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वी द्रव्यों का अन्तर कितने समय का होता है ? [196-2 उ./ आयुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय का और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है / [3] गम-बवहाराणं अवत्तन्वगदम्वाणं पुच्छा। एगदव्वं पडुच्च जहण्णणं एग समय उक्कोसेणं असंखेनं कालं, जाणावठवाइं पडुच्च परिण अंतरं। [196-3] अनानुपूर्वीद्रव्यों की तरह नैगम-व्यवहारनयसम्मत अवक्तव्यकद्रव्यों के विषय में भी प्रश्न है। एक द्रव्य की अपेक्षा अवक्तव्यकद्रव्यों का अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात काल प्रमाण है / अनेक द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है / विवेचन–यहाँ प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का अन्तर-विरहकाल बतलाया है। वे अपने प्रानुपूर्वी आदि रूपों को छोड़कर अन्य परिमाण से परिणत होकर पुनः उसी रूप में कितने समय बाद परिणत हो जाते हैं ? एक आनुपूर्वीद्रव्य का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः एक और दो समय बताने का कारण यह है कि यदि तीन समय की स्थिति वाला कोई विवक्षित एक प्रानुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वी रूप अपने परिणाम को छोड़कर किसी दूसरे परिणाम से एक समय तक परिणत रहकर पुनः उसी परिणाम से तीन समय की स्थिति वाला बन जाता है तब जघन्य अन्तर एक समय का होता है और जिस समय वही द्रव्य दो समय तक परिणामान्तर से परिणत बना रहकर बाद में तीन समय की स्थिति वाला बनता है तो उस दशा में उत्कृष्ट दो समय का अन्तर होता है। यदि परिणामान्तर से परिणत बना हुआ वह द्रव्य क्षेत्रादि संबन्ध के भेद से दो समय से अधिक समय तक भी रहता है तो उस समय भी वह उस स्थिति में भी पानुपूर्वित्व का अनुभवन करता है और तब वह अन्तर ही नहीं होता है। नाना द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं कहने का कारण यह है कि तीन समय की स्थिति वाले कोई न कोई द्रव्य लोक में सर्वदा रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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