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________________ 124] [अनुयोगद्वारसूत्र अनानपूर्वी द्रव्यों में एक द्रव्य की अपेक्षा जधन्य दो समय और उत्कृष्ट असख्यात काल का अन्तर बताने का कारण यह है कि एक समय की स्थिति वाला एक अनानपूर्वी द्रव्य जिस समय किसी अन्य रूप में दो समय तक परिणत रहकर बाद में पुनः उसी अपनी स्थिति में पा जाता है तब जघन्य से दो समय का अन्तर माना जाता है और यदि परिणामान्तर से परिणत हा एक समय तक रहता है तो वह अन्तर ही नहीं होता है। क्योंकि उस स्थिति में भी वह एक समय की स्थिति वाला होने से अनानुपूर्वी रूप ही है और यदि दो समय के बाद भी परिणामान्तर से परिणत बना रहता है तो जघन्यता नहीं है / जब वही द्रव्य असंख्यात काल तक परिणामान्तर से परिणत रहकर पुन: एक समय की स्थिति वाले परिणाम को प्राप्त करता है तब उत्कृष्ट असंख्यात काल का ग्रन्तर होता है / नाना द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर न कहने का कारण यह है कि लोक में सर्वदा उनका सद्भाव रहा करता है। एकवचनान्त अवक्तव्यद्रव्य के जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर के लिये यह समझना चाहिये कि दो समय की स्थिति वाला कोई प्रवक्तव्यकद्रव्य परिणामान्तर से परिणत हुआ एक समय तक रहता है और बाद में पुनः वह दो समय की स्थिति को प्राप्त कर लेता है तब विरहकाल जघन्य रूप में एक समय है और जब दो समय की स्थिति वाला कोई अवक्तव्यद्रव्य असंख्यात काल तक परिणामान्तर से परिणत रहकर पुन: दो समय की अपनी पूर्व स्थिति में प्राता है तब उसका अन्तर असंख्यात काल का माना जाता है / नाना अवक्तव्यद्रव्यों का लोक में सर्वदा सद्भाव पाये जाने से अन्तर नहीं है। (ङ 7) भागद्वार 197. णेगम-ववहाराणं प्राणुपुम्विदन्वाइं सेसदब्वाणं कइभागे होज्जा ? पुच्छा। जहेव खेत्ताणुपुवीए। [197 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग प्रमाण हैं ? |197 उ.] आयुष्मन् ! यहाँ कालानुपूर्वी के प्रसंग में तीनों द्रव्यों के लिये क्षेत्रानुपुर्वी जैसा ही कथन समझना चाहिये। . विवेचन-सूत्र में कालानुपूर्वी के भागद्वार का वर्णन करने लिये क्षेत्रानुपूर्वी के भागद्वार का अतिदेश किया है और क्षेत्रानुपूर्वी के प्रसंग में द्रव्यानुपूर्वी का अतिदेश किया है / प्राशय यह हुआ कि द्रव्यानुपूर्वी के भागद्वार द्वार की तरह इस कालानपूर्वी के भागद्वार की भी वक्तव्यता जाननी चाहिये। संक्षेप में वह इस प्रकार है समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातभागों से अधिक --असंख्यातगुणित हैं और शेष द्रव्य-अनानपूर्वी एवं प्रवक्तव्यक द्रव्य-इनकी अपेक्षा असंख्यातभाग न्यून हैं, इसका कारण के अनान पूर्वी एक समय की स्थिति रूप एक स्थान को और प्रवक्तव्यकद्रव्य द्विसमय की स्थिति रूप एक स्थान को ही प्राप्त है, किन्तु प्रानुपूर्वीद्रव्य तीन-चार-पांच आदि समय की स्थिति रूप स्थानों से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति रूप स्थानों को प्राप्त करता है / इस प्रकार प्रानपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातभागों से अधिक और शेष दो द्रव्य उसकी अपेक्षा असंख्यातभाग न्यून होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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