________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [341 हैं, अल्पाधिक नहीं / इसी प्रकार अन्यत्र भी जो जीव प्रत्येकशरीरी हों-स्वतन्त्र एक-एक शरीर के स्वामी हों-उनके बद्ध शरीरों की संख्या भी तत्प्रमाण समझ लेना चाहिये / नारकों के मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त औदारिकशरीर के समान जानने के कथन का आशय यह है कि मुक्त प्रौदारिकशरीरों की संख्या सामान्यतः अनन्त कही गई है, उतनी ही संख्या वाले नारक जीवों के मुक्त वैक्रियशरीर हैं। नारकों के बद्ध औदारिकशरीर की तरह बद्ध आहारकशरीर के विषय से भी जानना चाहिये। क्योंकि नारकों के बद्ध आहारकशरीर नहीं होते हैं तथा जैसे पूर्व में मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या सामान्यतः अनन्त कही है, उतनी ही संख्या मुक्त आहारकशरीरों की है / बद्ध और मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों की संख्या बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों के बराबर बताने का कारण यह है कि ये दोनों शरीर सभी नारकों के होते हैं, अतएव इनकी संख्या तत्प्रमाण समझना चाहिये। भवनवासियों के बद्ध-मुक्त शरीर राणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहा नेरइयाणं ओरालियसरीरा तहा भाणियब्वा। [419-1 अ.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने औदारिकशरीर कहे गये हैं ? [419-1 उ.] गौतम ! जैसी नारकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा की, उसी प्रकार इनके विषय भी जानना चाहिए। विवेचन-वैक्रियशरीर वाले होने से जैसे नारकों के बद्ध औदारिकशरीर नहीं हैं, उसी प्रकार असुरकुमारों के भी बद्ध औदारिकशरीर नहीं होते। उनके वैक्रियशरीर होता है। परन्तु मुक्त औदारिकशरीर जैसे नारकों के अनन्त कहे हैं इसी प्रकार इनके भी जानना चाहिये / [2] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया वेउब्वियसरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बखेल्लया ते णं असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढोणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेजतिभागो। मुक्केल्लया जहा प्रोहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियन्वा / [419-2 प्र. भगवन् ! असुरकुमारों के कितने वैक्रियशरीर कहे गये हैं ? [419-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध असंख्यात हैं / जो कालत: असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों में अपहृत होते हैं / क्षेत्र की अपेक्षा वे असंख्यात श्रेणियों जितने हैं और वे श्रेणियां प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है तथा मुक्त वैक्रियशरीरों के लिये जैसे सामान्य से मुक्त औदारिकशरीरों के लिये कहा गया है, उसी तरह कहना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org