SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 34.] [अनुयोगद्वारसूत्र ही हैं जितने नैरयिक हैं। नैरयिकों की संख्या असंख्यात है, अत: एक-एक नारक के एक-एक वैक्रियशरीर होने से उनके क्रियशरीरों की संख्या भी असंख्यात है / इस असंख्यातता की शास्त्रकार ने कालत: और क्षेत्रतः प्ररूपणा की है। कालत: प्ररूपणा का अर्थ यह है कि असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों के जितने समय हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर हैं। क्षेत्रत: बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं। यहाँ श्रेणी की व्याख्या के लिये संकेत किया है.--पयरस्स असंखेज्जइभागो—प्रतर का असंख्यातवां भाग ही श्रेणी कहलाता है। ऐसी असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। ___ अब यहाँ प्रश्न है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में असंख्यात योजन कोटियां भी आ जाती है तो क्या इतने क्षेत्र में जो प्राकाश-श्रेणियां हैं, उनको यहाँ ग्रहण किया गया है ? इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिये शास्त्र में संकेत दिया है-प्रतर के असंख्येय भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों की विस्तारसूची-श्रेणी यहाँ ग्रहण की गई है किन्तु प्रतर के असंख्येय भाग में रही हुई असंख्यात योजन कोटि रूप क्षेत्रवर्ती नभःश्रेणी ग्रहण नहीं की गई है / इस विष्कम्भसूची का प्रमाण द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल जितना ग्रहण किया गया है / इसका प्राशय यह हुआ कि अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जो प्रदेश राशि है, उसमें असंख्यात वर्गमूल हैं, उनमें प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल' से गुणा करने पर जितनी श्रेणियां लभ्य हों, उतनी प्रमाण वाली विष्कम्भसूची यहाँ ग्रहण करना चाहिए / इसे यों समझना चाहिए कि वस्तुतः असंख्येयप्रदेशात्मक प्रतरक्षेत्र में असत्कल्पना से मान लें कि 256 श्रेणियां हैं। इन 256 का प्रथम वर्गमूल सोलह (164 16 = 256) अथवा (24 5+ 6 - 16) हुमा और दूसरा वर्गमूल 4 एवं तीसरा वर्गमूल 2 होता है / प्रथम वर्गमूल 16 के साथ द्वितीय वर्गमूल 4 का गुणा करने पर (16 x 4 - 64) चौसठ हुए / बस इतनी ही (64) उसकी श्रेणियां हुई। ऐसी श्रेणियां यहाँ ग्रहण की गई हैं। __ प्रकारान्तर से इसी बात को सूत्र में इस प्रकार कहा गया है-अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घनप्रमाण श्रेणियां समझना चाहिये। इसका प्राशय हुआ कि अंगुल मात्र क्षेत्र में जितने प्रदेश हैं, उस राशि के द्वितीय वर्गमूल का घन करें, उतने प्रमाण वाली श्रेणियां समझना चाहिये / जिस राशि का जो वर्ग हो उसे उसी राशि से गुणा करने पर धन होता है / यहाँ असत्कल्पना से असंख्यात प्रदेशराशि को 256 माना था / उसका प्रथम वर्गमूल 16 और द्वितीय वर्गमूल 4 हुन।। अतः इस द्वितीय वर्ग की राशि का घन करने से 44 444 = 64 हुआ / सो ये 64 प्रमाण रूप श्रेणियां यहाँ जानना चाहिए / इस प्रकार के कथन में वर्णनशैली की विचित्रता है, अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। यह असत्कल्पना से कल्पित हुई 64 संख्या रूप श्रेणियों की जो प्रदेशराशि है, जिन्हें सैद्धान्तिक दृष्टि से असंख्यात माना है, उस राशिगत प्रदेशों की संख्या के बराबर नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते है। नारकों के बद्ध वैक्रियशरीरों को प्रसंख्यात मानने का कारण यह भी है कि प्रत्येकशरीरी होने से नारकों की संख्या इतनी ही--असंख्यात है / अतएव उनके बद्ध वैक्रियशरीर इतने ही हो सकते 1. प्रथम वर्गमूल के भी वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल कहते हैं, इसी प्रकार तृतीय आदि वर्ग मूलों के विषय में जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy