________________ 342} [अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन-यहाँ असूकुमारों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों का परिमाण बताया है / सामान्यतः तो असुरकुमारों के बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं किन्तु वे असंख्यात, कालत: असंख्यात उर्पिणी और अवपिणी काल के जितने समय होते हैं, उतने हैं। क्षेत्रत: असंख्यात का परिमाण इस प्रकार बताया है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के जितने प्रदेश होते हैं, उतने हैं। यहाँ उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची ली गई है जो अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवां भाग है। यह विष्कम्भसूची नारकों की विष्कम्भसूची की अपेक्षा उसके भाग प्रमाण वाली है / इस प्रकार असुरकुमार, नारकों की अपेक्षा उनके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। प्रझापनासूत्र के महादण्डक में रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की संख्या की अपेक्षा समस्त भवनवासी देव असंख्यातवें भागप्रमाण कहे गये हैं। अतः समस्त नारकों की अपेक्षा असुरकुमार उनके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, अर्थात् अल्प हैं यह सिद्ध हो जाता है / असुरकुमारों के मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के तुल्य समझने का संकेत किया है, अर्थात् सामान्य रूप से मुक्त औदारिकशरीर के समान अनन्त हैं। [3] असुरकुमाराणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता / तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / जहा एएसि चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियब्बा। [419.3 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने आहारकशरीर कहे गये हैं ? [419-3 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं- बद्ध और मुक्त / ये दोनों प्रकार के आहारकशरीर इन असुरकुमार देवों में औदारिकशरीर के जैसे जानने चाहिये / तथा---- [4] तेयग-कम्मगससरीरा जहा एतेसि चेव वेउब्वियसरीरा तहा भाणियव्वा / [419-4] तेजस और कार्मण शरीर जैसे इनके (असुरकुमारों के) वैक्रियशरीर बताये, उसी प्रकार जानना चाहिये। [5] जहा असुरकुमाराणं तहा जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियव्वं / [419-5] असुरकुमारों में जैसे इन पांच शरीरों का कथन किया है, वैसा ही स्तनितकुमार पर्यन्त के सब भवनवासी देवों के विषय में जानना चाहिये / विवेचन-यहाँ असुरकुमारों के बद्ध और मुक्त आहारकशरीर आदि शरीरत्रय की तथा असुरकुमारों के अतिरिक्त शेष नौ प्रकार के भवनपति देवों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि पांच शरीरों की प्ररूपणा की है। बद्ध और मुक्त प्राहारकशरीर असुरकुमार देवों में औदारिकशरीरवत् जानने के कथन का यह प्राशय है कि जिस प्रकार बद्ध औदारिकशरीर असुरकुमार देवों के नहीं होते उसी प्रकार बद्ध आहारकशरीर भी नहीं होते हैं। मुक्त औदारिकशरीर जिस प्रकार असुरकुमारों के अनन्त होते है, उसी प्रकार मुक्त आहारकशरीर भी अनन्त जानने चाहिये। तैजस-कार्मण शरीर बद्ध असंख्यात और मुक्त अनन्त जानने चाहिए। स्पष्टीकरण पूर्व में किया जा चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org