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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण कहना संगत है। विशुद्ध संग्रहनय अनेक द्रव्यों को और अनेक प्रदेशों को नहीं मानता है तथा सभी पदार्थों को सामान्य रूप से एक स्वीकार करता है / विशेषवादी व्यवहारनय की दष्टि में सामान्य अवस्तु है, अत: संग्रहनय के मंतव्य के निराकरण के लिये उसने यक्ति दी-पंचानां प्रदेश: यह कथन असंगत है। क्योंकि जैसे पांच गोष्ठिक पुरुषों की चांदी, सोना, धन, धान्य आदि में सामान्य साझेदारी होती है, वैसे यदि धर्मास्तिकाय प्रादि का कोई प्रदेश सामान्य हो तो पांच का प्रदेश कहना उचित है, लेकिन प्रदेश तो प्रत्येक द्रव्य के पृथक्पृथक् अपने-अपने हैं। इसलिये सामान्य प्रदेश के अभाव में 'पंचानां प्रदेशः' ऐसा कहना अयोग्य है / द्रव्य पांच प्रकार के हैं और प्रदेश तदाश्रयभूत हैं, इसलिये पंचविधः प्रदेश:--प्रदेश पांच प्रकार का है, ऐसा कहना चाहिये / ऋजुमूत्रनय तो व्यवहारनय से भी अधिक विशेषवादी है, अत: उसने व्यवहारनय की दृष्टि को भी अयुक्त मानते हुए कहा-यदि पांच प्रकार के प्रदेश माने जायें तो धर्मास्तिकाय आदि का एकएक प्रदेश पांच-पांच प्रकार का होने से प्रदेश पच्चीस प्रकार का हो जायेगा। किन्तु ऐसा कहना सिद्धान्त से बाधित है / अतएव ऐसा न कहकर भजनीयता बतलाने के लिये 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिये। जैसे स्यात् धर्मप्रदेश यावत् स्यात् स्कन्धप्रदेश / तात्पर्य यह है कि अर्थ की उपलब्धि शब्द से ही होती है। अत: जब पंचविधः प्रदेश: ऐसा कहा जायेगा तब इस कथन से प्रत्येक द्रव्यप्रदेश में पंचविधता प्रतिभासित होगी और पंचविशतिविधः प्रदेश: ऐसा 'पंचविध: प्रदेश का वाक्याथ होगा। इसलिये ऐसी भ्रान्त धारणा का निराकरण करने के लिये कहो कि धर्मप्रदेश भजनीय है कथन से अपने-अपने प्रदेश का ही ग्रहण होगा, परसंबन्धी प्रदेश का नहीं। शब्दनय की दृष्टि में ऋजुसूत्रनय की यह धारणा भी भ्रान्त है। उसका परिमार्जन करने के लिये शब्दनय का कथन है-'प्रदेश भजनीय है' ऐसा कहने पर तो जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश है वह कदाचित् धर्मास्तिकाय का भी हो सकता है और अधर्मास्तिकायादिक अन्य द्रव्यों का भी तथा अधर्मास्तिकाय का प्रदेश भी कदाचित् धर्मास्तिकायादिक का प्रदेश हो सकता है इत्यादि / इस प्रकार अनवस्था होने से वास्तविक प्रदेशस्थिति का अभाव हो जायेगा / भजना में अनियतता होने से प्रदेश अपने-अपने अस्तिकाय का होकर भी दूसरे का भी हो जाने से अनवस्था होगी ही। ऐसी स्थिति में यह कैसे समझा जाये कि जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश है वह धर्मास्तिकाय का ही है, इतर द्रव्यों का नहीं। इसलिये ऐसा कहो-जो प्रदेश धर्मास्तिकाय का है वह समस्त धर्मास्तिकाय से अभिन्न होकर ही धर्मात्मक है / इसी तरह अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय इन दोनों के प्रदेशों के विषय में भी जानना चाहिये, क्योंकि ये दोनों भी एक-एक द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय में एक देश नोजीव हैं / यहां 'नो' शब्द एक देशवाचक है। अर्थात् एक जीव सकल जीवास्तिकाय का एक देश है। एक जीवद्रव्यात्मक प्रदेश अनन्त जीवद्रव्यात्मक समस्त जीवास्तिकाय में नहीं रहता है। इसी प्रकार नोस्कन्ध के लिये भी समझना चाहिये। क्योंकि अनन्त स्कन्धात्मक पुद्गलास्तिकाय के एकदेशभूत एक स्कन्ध में रहने वाले प्रदेश की समस्त स्कन्ध रूप पुद्गलास्तिकाय में वृत्ति नहीं है, इसलिये एक स्कन्धात्मक प्रदेश को नोस्कन्ध कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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