SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [अनुयोगद्वारसूत्र समभिरूढनय ने शव्दनय की दृष्टि को भी परिमाजित करने के लिये कहा----तुम्हारा कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि 'धर्मप्रदेश' इस समासयुक्त पद में दो समास हो सकते हैं-तत्पुरुष और कर्मधारय / यदि 'धर्मप्रदेश' पद में तत्पुरुषसमास माना जाए तो वह सप्तमी तत्पुरुष का भारंभक बन जायेगा / जैसे 'वने हस्तीति बनहस्ती' इस पद में भेदवृत्ति है अर्थात् वन और हस्ती भिन्न-भिन्न हैं, वैसे ही धर्मप्रदेश पद से भी यही अर्थ सिद्ध होगा कि धर्म और प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं तथा 'धर्म में प्रदेश हैं' यहाँ धर्म आधार है और प्रदेश प्राधेय / आधार और आधेय में भेद अनुभवसिद्ध है जैसे 'कुण्डे बदराणि' / यदि कहा जाए कि अभेद में भी सप्तमी तत्पुरुष समास देखा जाता है, जैसे 'घटे रूपम्'-घट में रूप, तो संशय होगा कि भेद में सप्तमी समास है या अभेद में ? यदि कर्मधारय समास से कहते हो तो विशेषरूप से कहना चाहिए कि-'धर्मश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशः धर्मः।' अभिप्राय यह कि यह धर्मात्मक प्रदेश समस्त धर्मास्तिकाय से अभिन्न होकर ही धर्मात्मक कहलाता है, / धर्मास्तिकाय के एक देश से अभिन्न होकर नहीं किन्तु जीवप्रदेश के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। जीवास्तिकाय में पृथक-पृथक् अनन्त जीव हैं, अतएव जीवप्रदेश सकल जीवास्तिकाय का एक देश न होकर जीवास्तिकाय के एक देश का अर्थात् किसी एक जीव का देश होकर ही जीवप्रदेश कहलाता है। इस प्रकार विशेषता बतलाकर कहना चाहिये। एवंभूतनय ने समभिरूढनय को इंगित करते हए कहा- यदि तुम धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय. आकाशास्तिकाय, पदगलास्तिकाय और जीवास्तिकाय को स्वतन्त्र जीवास्तिकाय को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हो तो यह भी मानना चाहिये कि ये सभी प्रदेश की कल्पना से रहित हैं, परिपूर्ण हैं, निरव शेष हैं, निरवयव हैं तथा एक है। मेरी दृष्टि में ये देश-प्रदेश अवस्तु ही हैं। विचार करें तो प्रदेश और प्रदेशी में भेद है या अभेद है ? भेद है नहीं, क्योंकि भेद की उपलब्धि नहीं होती है और अभेद कहो तो धर्म और प्रदेश इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ हो जाएगा / ऐसी अवस्था में दो शब्दों का नहीं, किन्तु दो में से एक ही शब्द का उच्चारण करना चाहिए, दूसरे की व्यर्थता स्वयंसिद्ध है। अतः धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल ग्रादि देश-प्रदेश रहित अखंड वस्तु हैं / इस प्रकार से ये सातों नय अपने-अपने मत की सत्यता का प्रतिपादन करने में कटिवद्ध रहते हैं और अपने दुराग्रह के कारण दुर्नय रूप हो जाते हैं। इस प्रकार नयवर्णन के प्रसंग में दुर्नय का स्वरूप भी बतला दिया है। लेकिन जब ये सातों नय अपने मत की स्थापना के साथ दूसरे नय के मत की उपेक्षा रखते हैं अर्थात् उनका तिरस्कार नहीं करते, तब उस सापेक्ष स्थिति में सुनय कहलाते हैं। इन सापेक्ष समुदित नयों में ही संपूर्ण जिनमत प्रतिष्ठित है / पृथक्-पृथक् अवस्था में नहीं है / कहा भी है उदधाविव सर्वसिन्धव: समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टय: / न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरिरिस्ववोदधिः / / हे नाथ ! जैसे सब नदियां समुद्र में एकत्र हो जाती हैं, इसी प्रकार अापके मत में सब नय एक साथ मिल जाते हैं। परन्तु आपके मत का किसी एक नय में समावेश नहीं हो सकता है। जैसे समुद्र किसी एक नदी में नहीं समाता, उसी प्रकार सभी वादियों का सिद्धान्त तो जैनमत है लेकिन संपूर्ण जिनमत किसी वादी का मत नहीं है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy