SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 394] [अनुयोगद्वारसूत्र दृष्टि से 'धर्मप्रदेश प्रादि कह रहे हो ? यदि तत्पुरुषसमासदृष्टि से कहते होमो तो ऐसा मत कहो और यदि कर्मधारय समास की अपेक्षा कहते हो तब विशेषतया कहना चाहिये-धर्म और उसका जो प्रदेश (उसका समस्त धर्मास्तिकाय के साथ समानाधिकरण हो जाने से) वही प्रदेश धर्मास्तिकाय है। इसी प्रकार अधर्म और उसका जो प्रदेश वही प्रदेश अधर्मास्तिकाय रूप है, आकाश और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश आकाशास्तिकाय है, एक जीव और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोजीवास्तिकाय है तथा स्कन्ध और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है। ऐसा कथन करने पर समभिरूढनय से एवंभूतनय ने कहा-(धर्मास्तिकाय आदि के विषय में) जो कुछ भी तुम कहते हो वह समीचीन नहीं, मेरे मत से वे सब कृत्स्न (देश-प्रदेश की कल्पना से रहित) हैं, प्रतिपूर्ण और निरवशेष (अवयवरहित) हैं, एक ग्रहणग्रहीत हैं-~-एक नाम से ग्रहण किये गये हैं, अतः देश भी अवस्तु रूप है एवं प्रदेश भी अवस्तु रूप हैं। यही प्रदेशदृष्टान्त है और इस प्रकार नयप्रमाण का वर्णन पूर्ण हुप्रा / विवेचन–प्रदेशदृष्टान्त के द्वारा यहाँ नयों के स्वरूप का प्रतिपादन किया है। प्रदेश आदि की व्याख्या---जो अतिसूक्ष्म और जिसका विभाग न हो सके, ऐसे स्कन्ध से सम्बद्ध निविभाग भाग को प्रदेश कहते हैं।' पुद्गलद्रव्य का समग्रपिण्ड स्कन्ध और स्कन्ध का जो प्रदेश वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है / धर्मास्तिकाय आदि पांचों द्रव्यों के दो प्रादि प्रदेशों से जो निष्पन्न होता है उसे देश एवं देश का जो प्रदेश उसे देशप्रदेश कहते हैं। नयों का मन्तव्य-नैगमनय की दृष्टि से छह प्रकार के प्रदेश हैं / इसका कारण यह है कि नैगमनय का विषय सबसे अधिक विशाल है। वह सामान्य और विशेष दोनों को गौण-भूख्य रूप से विषय करता है। अतएव जब धर्मास्तिकायादि द्रव्यों में सामान्य की विवक्षा से प्रदेशव्यवस्था की जाती है तब नैगमनय ‘घटप्रदेश' शब्द का समास 'पण्ण प्रदेशः षट्प्रदेशः' ऐसा एकवचनान्त शब्दप्रयोग और जब प्रदेश विशेष की विवक्षा की जाती है तब 'षण्णां प्रदेशा: षट्प्रदेशा: ऐसा बहुवचनान्त शब्दप्रयोग करता है / इस प्रकार से नैगमनय की अपेक्षा षट्प्रदेश होते हैं। संग्रहनय की युक्ति है कि षण्णां प्रदेशा:' यह कथन संगत नहीं है / क्योंकि देश का भी जो प्रदेश माना है उस देश का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, वह धर्मास्तिकायादिकों के प्रदेशद्वय आदि में ही निष्पन्न है / इसलिये देश का प्रदेश तो वस्तुत: धर्मास्तिकायादि का ही होगा, क्योंकि द्रव्य से अभिन्न देश का प्रदेश वस्तुतः द्रव्य का ही है। लोक में देखा जाता है कि किसी के दास ने यदि गधा खरीदा, तब जैसे दास उसका माना जाता है वैसे ही गधा भी उसी का कहलायेगा। इसी प्रकार देश का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होने से प्रदेश धर्मास्तिकाय आदि पांच द्रव्यों के हैं, छह के नहीं / __ यद्यपि संग्रहनय सामान्य को विषय करता है, लेकिन विशुद्ध और अविशुद्ध की अपेक्षा उसके दो भेद हैं। इनमें से उपर्युक्त कथन अविशुद्ध संग्रहनय का है। अविशुद्ध संग्रहनय अवान्तर सामान्य रूप अपरसत्ता को विषय करता है। यह अवान्तर सामान्य अनेक प्रकार का हो सकता है। इसलिये अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाले अविशुद्ध संग्रहनय की दृष्टि से पांच द्रव्यों के प्रदेश 1. प्रकृष्टो देश: प्रदेशो निविभागो भाग इत्यर्थः / -- अनयोगद्वार, मलधारीया वत्ति , 227 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy