________________ आनुपूर्वी मिरूपण [131 [204-4 प्र. भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है। [204-4 उ. आयुष्मन् ! इन्हीं को एक से लेकर दस अरब पर्यन्त की एक-एक वृद्धि वाली श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर गुणा करने पर जो भंग हों, उनमें से प्रादि और अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं / विवेचन प्रस्तुत में सप्रभेद गणनानुपूर्वी का स्वरूप बतलाया है। गिनती करने की पद्धति को गणनानुपूर्वी कहते हैं / 'एक' यह गणना का प्रादि स्थान है और इसके बाद क्रमश: पूर्व-पूर्व को दस गुणा करते जाने पर उत्तर-उत्तर की दस, सौ, हजार आदि की संख्याएँ प्राप्त होती हैं। इनमें पूर्वानुपूर्वी एक से प्रारंभ होती है और पश्चानुपूर्वी इसके विपरीत उत्कृष्ट से प्रारंभ कर जघन्यतम गणनास्थान में पूर्ण होती है। अनानुपूर्वी में जघन्य और उत्कृष्ट पद रूप अनुक्रम एवं व्युत्क्रम छोड़ करके यथेच्छ क्रम का अनुसरण किया जाता है। अब क्रमप्राप्त संस्थानानपूर्वी का स्वरूप बतलाते हैं / संस्थानानपूर्वोप्ररूपणा 205. [1] से कि तं संठाणाणुपुवी ? संठाणाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-पुन्धागुपुत्वी 1 पच्छाणुपुच्ची 2 अणाणुपुवी 3 / |205.1 प्र.] भगवन् ! संस्थानापूर्वी का क्या स्वरूप है ? [205-1 उ. आयुष्मन् ! संस्थानापूर्वी के तीन प्रकार हैं--- 1. पूर्वानुपूर्वी 2. पश्चानुपूर्वी 3. अनानुपूर्वी / [2] से कि तं पुवाणुपुथ्वी ? पुवाणुपुब्बी समचउरंसे 1 णग्गोहमंडले 2 सादी 3 खुज्जे 4 वामणे 5 हुंडे 6 / से तं पुवाणुपुलो। [205-2 प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी किसे कहते हैं ? [205-2 उ.] आयुष्मन् ! 1. समचतुरस्त्रसंस्थान, 2. न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, 3. सादि-- संस्थान, 4. कुब्जसंस्थान, 5. वामनसंस्थान, 6. हुंडसंस्थान के कम से संस्थानों के विन्यास करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। [3] से कि तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुची हुंडे 6 जाव समचउरंसे 1 / से तं पच्छाणपन्धी / [205-3 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [205-3 उ.] आयुष्मन् ! हंडसंस्थान से लेकर समचतुरस्रसंस्थान तक व्युत्क्रम से संस्थानों का उपन्यास करना पश्चानुपूर्वी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org