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________________ 404] (अनुयोगद्वारसूत्र प्रकार एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र, ये तीनों प्रकार के द्रव्यशंख अभी तो नहीं किन्तु भविष्य में भावशंख होंगे, इसीलिये ये तीनों नय इनको भावशंख रूप में स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्रनय पूर्व नयत्रय की अपेक्षा विशेष शुद्ध है / अतः यह बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र-इन दो प्रकार के शंखों को मानता है। इसका मत है कि एकभविक जीव को शंख नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वह भावशंख से अतिव्यवहित-बहुत अन्तर पर है। उसे शंख मानने में अतिप्रसंग दोष होगा। शब्द. समभिरूढ और एवंभूत नय ऋजसत्रनय से भी शुद्ध हैं। इस कारण भावशंख के समीप होने से तीसरे अभिमुखनामगोत्र शंख को तो शंख मानते हैं, किन्तु प्रथम दोनों प्रकार के (एकभविक, बद्धायुष्क) शंख भावशंख के प्रति प्रति व्यवहित होने से उन्हें शंख के रूप में मान्य नहीं करते। प्राकृत संखा' शब्द के संख्या और शंख ये दो रूप होने से प्रस्तुत निरूपण में जहाँ जो रूप घटित हो सकता हो, वह घटित कर लेना चाहिए। औपम्यसंख्यानिरूपण 492. [1] से कि तं ओवम्मसंखा ? प्रोवम्मसंखा चउम्विहा पण्णत्ता। तं जहा-अस्थि संतयं संतएणं उवमिज्जइ 1 अस्थि संतयं असंतएणं उवमिज्जइ 2 अत्थि असंतयं संतएणं उवमिज्जइ 3 अस्थि असंतयं असंतएणं उवमिज्जइ 4 / [492-1 प्र.] भगवन् ! प्रौपम्यसंख्या का क्या स्वरूप है ? [492-1 उ.] आयुष्मन् ! (उपमा देकर किसी वस्तु के निर्णय करने को औपम्यसंख्या कहते हैं।) उसके चार प्रकार हैं। जैसे 2.सद वस्तु को सद वस्त की उपमा देना / 2. सद् वस्तु को असद् वस्तु से उपमित करना / 3. असद् वस्तु को सद् वस्तु की उपमा देना / 4. असद् वस्तु को असद् वस्तु की उपमा देना / विवेचन--सूत्रार्थ स्पष्ट है। यहाँ औपम्य संख्या के चार प्रकार बतलाए हैं, जिनका आगे वर्णन करते है। सद्-सद्रूप श्रौपम्यसंख्या __ [2] तत्थ संतयं संतएणं उवभिज्जइ, जहा-संता अरहंता संतएहि पुरवरेहि संतएहि कवाडएहिं संतएहिं वच्छएहिं उवमिति, तं जहा पुरवरकवाडवच्छा फलिह या दुंदुभित्थणियघोसा / सिरिवच्छंकियवच्छा सन्वे वि जिणा चउन्वीसं // 116 // _[492-2] इनमें से जो सद् वस्तु को सद् वस्तु से उपमित किया जाता है, वह इस प्रकार सद्रूप अरिहंत भगवन्तों के प्रशस्त वक्षस्थल को सद्रूप श्रेष्ठ नगरों के सत् कपाटों की उपमा देना, जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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