________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [259 विवेचन--सूत्र में उत्सेधांगुल के उपयोग का प्रयोजन बताया है कि उससे नारकादिकों के शरीर की अवगाहना मापी जाती है। जीव दो प्रकार के हैं—मुक्त और संसारी। मुक्त जीवों की अटल अवगाहना होती है, अर्थात् सिद्ध तो जिस मनुष्यशरीर से मुक्ति प्राप्त की उससे त्रिभागन्यून अवगाहना वाले होते हैं / इनकी यह अवगाहना सादि अपर्यवसित है। किन्तु संसारी जीव जन्म-मरण रूप रण एक गति से गत्यन्तर में गमन करते हैं और वहाँ अपने कर्मोदयवशात जितनी ना वाला जैसा शरीर प्राप्त होता है, तदनुरूप भवयर्यन्त रहते हैं। उनकी यह अवगाहना अनियत होती है / इसलिये उनकी अवगाहना का प्रमाण जानना आवश्यक है और यह कार्य उत्सेधांगुल द्वारा संपन्न होता है / अतएव अब प्रश्नोत्तरों के द्वारा नारकादि जीवों की अवगाहना का वर्णन करते हैं। नारक-अवगाहना निरूपण 347. [1] गैरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेउब्विया य 2 / तस्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउम्विया सा जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं घणुसहस्सं / [347-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के शरीर की कितनी अवगाहना कही गई है ? [347-1 उ.] गौतम ! नारक जीवों की शरीर-अवगाहना दो प्रकार से प्ररूपित की गई है,-१. भवधारणीय (शरीर-अवगाहना) और 2. उत्तरवैक्रिय (शरीर-अवगाहना)। उनमें से भवधारणीय (शरीर) की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट पांच सौ धनुषप्रमाण है। उत्तरवैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट एक हजार धनुषप्रमाण है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नारक जीवों की अवगाहना का प्रमाण बताया है। वर्णन करने की दो शैलियां हैं सामान्य और विशेष / यहाँ सामान्य से समस्त नारक जीवों की भवधारणीय शरीरापेक्षया और उत्तरवैक्रियशरीरापेक्षया अवगाहना का निरूपण किया है। नारक आदि के शरीर द्वारा अवगाढ आकाश रूप क्षेत्र अथवा नारक अादि जीवों का शरीर अवगाहना शब्द का वाच्यार्थ है / गतिनामकर्म के उदय से नर-नारकादि भव में जिस शरीर की उपलब्धि होती है और उसकी जो ऊंचाई हो, वह भवधारणीय अवगाहना है। उस प्राप्त शरीर से प्रयोजनविशेष से अन्य शरीर की जो विकुर्वणा की जाती है, वह उत्तरवैक्रिय-अवगाहना कहलाती है।' 1. भवे-नारकादिपर्यायभवनलक्षणे प्राय:समाप्ति यावत्सततं ध्रियते या सा भवधारणीया, सहजशरीरगतेत्यर्थः या तु तद्ग्रहणोत्तरकालं कार्यमाश्रित्य क्रियते सा उत्तरवैक्रिया / अनुयोगद्वारवृत्ति, पत्र 164 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org