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________________ 260 अनुयोगद्वारसूत्र नारकों और देवों का भवधारणीय शरीर वैक्रिय होता है। तिर्यंचों एवं मनुष्यों का भवधारणीय शरीर तो औदारिक है, किन्तु किन्हीं-किन्हीं मनुष्यों और तिर्यंचयोनिक जीवों में लब्धिवशात् वैक्रियशरीर भी पाया जाता है / __ यद्यपि प्रकृत में सामान्यतः नारकों के शरीर की अवगाहना की जिज्ञासा की गई है लेकिन उत्तर में भेदपूर्वक उस अवगाहना का निर्देश इसलिये किया है कि भेद किये बिना शरीर की अवगाहना के प्रमाण को स्पष्ट रूप से बताना संभव नहीं है / / इस प्रकार सामान्य से नारकों की अवगाहना का प्रमाण कथन करने के पश्चात् अब विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पृथ्वियों के नारकों की अवगाहना बतलाते हैं। [2] रयणप्पभापुढवीए नेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता ! तं जहा-भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेउव्विया य 2 // तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग, उक्कोसेणं सत्त धणूई तिणि रयणीयो छच्च अंगुलाई।। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउविया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइज्जायो रयणीओ य / [347-2 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की कितनी शरीरावगाहना कही है ? [347-2 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार की कही गई है-१. भवधारणीय और 2. उत्तरवैक्रिय / उनमें से भवधारणीय शरीरावगाहना तो जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन रत्ति तथा छह अंगुलप्रमाण है। दूसरी उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष, अढ़ाई रत्नि-दो रत्नि और बारह अंगुल है। [3] सक्करप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-भवधारणिज्जा य 1 उत्तरवेउव्विया य 2 / तस्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइज्जाओ रयणीओ य। तत्व णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं एक्कत्तीसं धणूई रयणी य। [347-3 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना कितनी कहीं है ? [347-3 उ.] गौतम ! उनकी अवगाहना का प्रतिपादन दो प्रकार से किया है / यथा 1. भवधारणीय और 2. उत्तरवैक्रिय / उनमें से भवधारणीय अवगाहना तो जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष दो रत्नि और बारह अंगुल प्रमाण है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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