SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 162] [अनुयोगद्वार सूत्र नामकर्मविप्रमुक्त, क्षीण-उच्चगोत्र, क्षीण-नीचगोत्र, अगोत्र, निर्गोत्र, क्षीणगोत्र, शुभाशुभगोत्रकर्मविप्रमुक्त, क्षीण-दानान्तराय, क्षीण-लाभान्तराय, क्षीण-भोगान्तराय, क्षीण-उपभोगान्तराय, क्षीणवीर्यान्तराय, अनन्तराय, निरंतराय, क्षीणान्तराय, अंतरायकर्मविप्रमुक्त, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत्त, अंतकृत, सर्वदुःखप्रहीण / यह क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव का स्वरूप है / इस प्रकार से क्षायिकभाव की वक्तव्यता जानना चाहिये। विवेचन--यहाँ क्षय और क्षयनिष्पन्न भावों का स्वरूप निरूपण किया है। क्षायिकभाव अपने-अपने उत्तरभेदों सहित ज्ञानावरण आदि पाठ कर्मों के सर्वथा अपगम रूप है और क्षयनिष्पन्न क्षायिक भावों के रूप में जो नाम गिनाये हैं, वे क्षय से उत्पन्न हुई प्रात्मा की निज स्वाभाविक अवस्थाएँ हैं। कर्मों के नष्ट होने पर प्रात्मा का जो मौलिक रूप प्रकट होता है, उसी के ये वाचक हैं। जैसे केवलज्ञानावरण के नष्ट होने पर प्रात्मा में केवलज्ञानगुण प्रकट हो जाता है और मतिज्ञान प्रादि चार क्षायोपशमिक ज्ञान क्षायिक रूप हो जाते हैं-केवलज्ञान अन्तहित हो जाते हैं, तब क्षीणकेवलज्ञानाकरण ऐसा जो नाम होता है वह नाम, स्थापना या द्रव्यनिक्षेप रूप नहीं होता किन्तु भावनिक्षेप रूप होता है / इसी प्रकार शेष नामों के लिये भी जानना चाहिये। यद्यपि सूत्रोक्त नामों का वर्गीकरण आवश्यक नहीं है, सभी नाम निष्कर्मा आत्मा के बोधक हैं / तथापि सुगमबोध के लिये उन नामों के तीन वर्ग इस प्रकार हो सकते हैं 1. प्रथम वर्ग उन नामों का है जिनसे कर्मों के सर्वथा क्षीण होने पर प्रात्मा को संबोधित किया जाता है / ये नाम हैं उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारी, अर्हत्, जिन, केवली। 2. दूसरे वर्ग में वे नाम हैं जो पांच प्रकार के ज्ञानावरणकर्म, नौ प्रकार के दर्शनावरणकर्म, दो प्रकार के वेदनीयकर्म, अटाईस प्रकार के मोहनीयकर्म, चार प्रकार के प्रायष्यकर्म, बयालीस प्रकार के नामकर्म, दो प्रकार के गोत्रकर्म और पांच प्रकार के अंतरायकर्म के क्षय से निष्पन्न हैं। इन नामों का उल्लेख क्षीण-प्राभिनिबोधिकज्ञानावरण से अन्तरायकर्मविप्रमुक्त पद तक किया है तथा सर्वथा कर्मप्रकृतियों के क्षय से सिद्धावस्था प्राप्त होने से यह कथन सिद्ध भगवान् की अपेक्षा जानना चाहिये। 3. तीसरे वर्ग के नामों में सर्वथा कर्मक्षय होने पर सम्भव प्रात्मा की अवस्था का निरूपण किया है / इसके द्योतक शब्द सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त, अंतकृत और सर्वदुःखप्रहीण हैं / पदसार्थक्य - सूत्रगत सभी पद पारिभाषिक हैं। इनमें से अधिकांश के लक्षण पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति प्रादि कर्मग्रन्थों से जानकर और उनके साथ क्षीण शब्द जोड़ने पर ज्ञात हो सकते हैं। किन्तु कुछ पद ऐसे हैं कि पर्यायवाची होने से उनमें शब्दनय की अपेक्षा भेद नहीं है किन्तु समभिरूढनय की अपेक्षा उनके वाच्यार्थ में भेद हो जाता है / ऐसे पदों का यहाँ उल्लेख किया जाता है अणावरणे निरावरणे खीणावरणे-वर्तमान में प्रात्मा अविद्यमान आवरणवाला होने से अनावरण रूप है, किन्तु भविष्य में पुनः कर्मसंयोग होने की सम्भावना का निराकरण करने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy