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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] किसी अन्य प्रशस्त उत्पात-उल्कापात या दिग्दाहादि को देखकर अनुमान करना कि अच्छी वृष्टि होगी। इसे अनागतकालग्रहणविशेषदृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान कहते हैं / विवेचन-यहाँ ग्रहणकाल की अपेक्षा अनुकूल विशेषदृष्ट-दृष्टसाधर्म्यवत्-अनुमान का विवेचन किया गया है। विशेषता का विचार किसी न किसी आधारनिमित्त से किया जाता है / यहाँ काल के निमित्त से अनुकूल विशेष दृष्ट के तीन प्रकार बताये हैं। यद्यपि काल का कोई भेद नहीं है, वह अनन्तसमयात्मक है, किन्तु जब घड़ी, घंटा, मिनिट प्रादि व्यवहार से काल के खंड करते हैं तब स्थूल रूप से भूत, वर्तमान और भविष्य, ऐसा नामकरण करते हैं / जो ऊपर दिये गये कालविषयक उदाहरणों से स्पष्ट है / कालत्रयविषयक अनुमानों की व्याख्या इस प्रकार है---- 1. अतीतकाल से संबन्धित ग्राह्य वस्तु का जिसके द्वारा ज्ञान किया जाता है, उसे अतीतकालग्रहण-अनुमान कहते हैं। उसका अनुमानप्रयोग इस प्रकार है-'इह देशे सुवृष्टि : आसीत् समुत्पन्नतुणवनसस्यपूर्णमेदनीजलपूर्णकुण्डादिदर्शनात् तद्देशवत् / ' इसमें ग्राह्य वस्तु सुवृष्टि है, जिसका अतीतकाल में होना अनुमान द्वारा ग्रहण किया गया है। यहाँ सुवृष्टि हुई है, यह पक्ष है, तृण, धान्य, जलाशयादि ये उसके कार्य होने से हेतु और अन्यदेशवत् यह अन्वयदृष्टान्त है / इसी प्रकार ये तीन-तीन (पक्ष, हेतु और दृष्टान्त) सर्वत्र जानना चाहिये। 2. वर्तमानकालसंबन्धी वस्तु को ग्रहण करने वाले अनुमान को प्रत्युत्पन्नकालग्रहणअनुमान कहते हैं। जैसे—'इस प्रदेश में सुभिक्ष है' क्योंकि साधुओं को प्रचुर भोजनादि की प्राप्ति देखने में आती है / इसमें सुभिक्ष साध्य है और भोजनादि की प्राप्ति हेतु है / 3. भविष्यत्कालसंबन्धी. विषय जिसका ग्राह्य-साध्य हो, उसे अनागतकालग्रहण अनुमान कहते हैं / यथा--इस देश में सुष्टि होगी क्योंकि वृष्टिनिमित्तक आकाश की निर्मलता आदि लक्षण दिख रहे हैं, उस देश की तरह / इस अनुमानप्रयोग में सुवृष्टि साध्य है, अाकाश की निर्मलता दिखना हेतु और उस देश की तरह दृष्टान्त है / सुवृष्टि होने के अनुमापक नक्षत्र इस प्रकार हैं वरुण के नक्षत्र–१. पूर्वाषाढा, 2. उत्तराभाद्रपद, 3. आश्लेषा, 4. आर्द्रा, 5. मूल, 6. रेवती और 7. शतभिष / महेन्द्र के नक्षत्र-१. अनुराधा, 2. अभिजित, 3. ज्येष्ठा, 4. उत्तराषाढ़ा, 5. धनिष्ठा, 6. रोहिणी और 7. श्रवण / प्रतिकूलविशेषदृष्ट-साधर्म्यवत्-अनुमान के उदाहरण 454. एएसि चेव विवच्चासे तिविहं गहणं भवति / तं जहा--- तीतकालगहणं पडुप्पण्णकालगहणं अणागयकालगहणं / [454] इनकी विपरीतता में भी तीन प्रकार से ग्रहण होता है---अतीतकालग्रहण, प्रत्युत्पन्नकालग्रहण और अनागतकालग्रहण / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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