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________________ अर्थात् शब्द का अर्थ में और अर्थ का शब्द में आरोप करना यानी शब्द और अर्थ को किसी एक निश्चित अर्थ में स्थापित करना निक्षेप है।५६ संक्षिप्त में सार यह है कि जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान या उपचार से वस्तु में जिन प्रकारों से प्राक्षेप किया जाय वह निक्षेप है। क्षेपक्रिया के भी दो प्रकार हैं, प्रस्तुत अर्थ का बोध कराने वाली शब्दरचना और दूसरा प्रकार है अर्थ का शब्द में आरोप करना / क्षेपणक्रिया वक्ता के भावविशेष पर प्राधृत है। प्राचार्य उमास्वाति ने निक्षेप का पर्यायवाची शब्द न्यास दिया है। तत्त्वार्थ राजवातिक में 'न्यासो निक्षेप:५७ के द्वारा स्पष्टीकरण किया है। नाम आदि के द्वारा वस्तू में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं / 58 निक्षेप के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार प्रकार हैं। प्रस्तुत द्वार में निक्षेप के अोधनिष्पन्न निक्षेप, नामनिष्पन्न निक्षेप और मुत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप- इस प्रकार तीन भेद किये हैं। अोघनिष्पन्न निक्षेप, अध्ययन, अक्षीण, प्राय और क्षपणा के रूप में चार प्रकार का है। अध्ययन के नामाध्ययन, स्थापनाध्ययन, द्रब्याध्ययन और भावाध्ययन--ये चार भेद हैं। अक्षीण के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव—ये चार भेद हैं। इन चार में भावाक्षीणता के ग्रागमत: भावाक्षीणता और नोयागमत: भावाक्षीणता कहलाती है। जो व्यय करने पर भी किचिन्मात्र भी क्षीण न हो वह नोग्रागमतः भावाक्षीणता कहलाती है। जैसे-एक जगमगाते दीपक से शताधिक दीपक प्रज्वलित किये जा सकते हैं, किन्तु उससे दीपक की ज्योति क्षीण नहीं होती वैसे ही प्राचार्य श्रत का दान देते हैं। वे स्वयं भी श्रतज्ञान से दीप्त रहते हैं और दुसरों को भी प्रदीप्त करते हैं / सारांश यह है कि श्रुत का क्षीण न होना भावाक्षीणता है। प्राय के नाम, स्थापनादि चार भेद हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ प्रशस्त प्राय है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की प्राप्ति अप्रशस्त प्राय है। क्षपणा के नाम, स्थापनादि चार भेद हैं / क्षपणा का अर्थ निर्जरा, क्षय है / क्रोधादि का क्षय होना प्रशस्त क्षपणा है। ज्ञानादि का नष्ट होना अप्रशस्त क्षपणा है। मोघनिष्पन्न निक्षेप के विवेचन के पश्चात नामनिष्पन्न निक्षेप का विवेचन करते हुए कहा है-जिस वस्तु का नामनिक्षेपनिष्पन्न हो चुका है उसे नामनिष्पन्ननिक्षेप कहते हैं, जैसे सामायिक / इसके भी नामादि चार भेद हैं / भावसामायिक का विवेचन विस्तार से किया है और भावमामायिक करने वाले श्रमण का प्रादर्श प्रस्तुत करते हुए बताया है—जिसकी आत्मा सभी प्रकार से सावध व्यापार से निवृत्त होकर मूलगुणरूप संयम, उत्तरगुणरूप नियम तथा तप आदि में लीन है उसी को भावसामायिक का अनुपम लाभ प्राप्त होता है। जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियों को प्रात्मवत देखता है, उनके प्रति समभाव रखता है वही सामायिक का सच्चा अधिकारी है। जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही अन्य प्राणियों को भी दःख प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर जो न किसी अन्य प्राणी का हनन करता है, न करवाता है और न करते हुए की अनुमोदना ही करता है वह श्रमण है, आदि / 56. णिच्छए णिण्णए खिवदि त्ति शिक्खेयो। -धवला पु. 1, पृ. 10 57. नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः। -तत्त्वार्थसूत्र 1 / 5 58. उपायो न्यास उच्यते। -धवला 1111111, गा. 11 / 17 [ 37 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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