SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अजीवगुणप्रमाण के 5 प्रकार हैं-वर्ण गुणप्रमाण, गंधगुणप्रमाण, रसगुणप्रमाण, स्पर्शगुणप्रमाण और इनके क्रमश: 5, 2, 5, 6 और 5 भेद प्रतिपादित किये गये हैं। यह गुणप्रमाण का वर्णन हुआ। भावप्रमाण का दूसरा भेद नयप्रमाण है। नय के नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवं भूत-ये सात प्रकार हैं। प्रस्थक, वसति एवं प्रदेश के दृष्टान्त से इन नयों का स्वरूप समझाया है। भावप्रमाण का तृतीय भेद संख्याप्रमाण है / वह नामसंख्या, स्थापनासंख्या, द्रव्यसंख्या, उपमानसंख्या, परिमाणसंख्या, ज्ञानसंख्या, गणनासंख्या और भावसंख्या-इस तरह आठ प्रकार का है। गणनासंख्या विशेष महत्त्वपूर्ण होने से उसका विस्तार से विवेचन किया है। जिसके द्वारा गणना की जाय बह गणनासंख्या कहलाती है। एक का अंक गिनने में नहीं पाता अत: दो से गणना की संख्या का प्रारम्भ होता है। संख्या के संप्रेयक, असंख्येयक और अनन्त, ये तीन भेद हैं / संख्येयक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद हैं / असंख्येयक के परीतासरूप्रेयका, यूक्तासंख्येयक और असंख्येयासंख्येयक तथा इन तीनों के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन-तीन भेद हैं। इस प्रकार असंख्येयक के 9 भेद हुए / अनन्तक के परीतान्तक, युक्तानन्तक और अनन्तानन्तक, ये तीन भेद हैं। इनमें से परीतान्तक और युक्तानन्तक के जपन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन-तीन भेद हैं और अनन्तान्तक के जघन्य और मध्यम, ये दो भेद हैं। इस प्रकार कुल 8 भेद होते हैं। संख्येयक के 3, असंख्येयक के 9 और अनन्तक के 8, कुल 20 भेद हुए। यह भावप्रमाण का वर्णन हुआ / हमने पूर्व पृष्ठों में सामायिक के चार अनुयोगद्वारों में से प्रथम अनुयोगद्वार उपक्रम के ग्रानुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार, ये 6 भेद किये थे। उनमें पानुपूर्वी, नाम और प्रमाण पर चिन्तन किया जा चुका है / अवशेष 3 पर चिन्तन करना है। वक्तन्यता के स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और उभय समयवक्तव्यता, ये तीन प्रकार हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि स्व-सिद्धान्तों का वर्णन करता स्वसमयवक्तव्यता है। अन्य मतों के सिद्धान्तों की व्याख्या करना परसमयवक्तव्यता है। स्वपर-उभय मतों की व्याख्या करना उभयसमयवक्तव्यता है। जो जिस अध्ययन का अर्थ है अर्थात विषय है वही उस अध्ययन का अधिकार है। उदाहरण के रूप में, जैसे आवश्यक सूत्र के 6 अध्ययनों का सावद्ययोग से निवत्त होना ही उसका विषयाधिकार है वही अर्थाधिकार कहलाता है। समवतार का तात्पर्य यह है कि प्रानुपूर्वी आदि जो द्वार हैं उनमें उन-उन विषयों का समवतार करना अर्थात सामायिक आदि अध्ययनों की प्रानुपूर्वी आदि पांच बातें विचार कर योजना करना / समवत स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसमवतार इस प्रकार छह भेद हैं। द्रव्यों का स्वगुण की अपेक्षा से प्रात्मभाव में नवतीर्ण होना-व्यवहारनय की अपेक्षा से पररूप में अवतीर्ण होना आदि द्रव्यसमवतार हैं। क्षेत्र का भी स्वरूप, पररूप और उभयरूप से समवतार होता है। काल समवतार श्वासोच्छ्वास से संख्यात, असंख्यात और अनन्तकाल (जिसका विस्तार पूर्व में दे चुके हैं) तक का होता है। भावसमवतार के भी दो भेद हैं—नात्मभावसमवतार और तदुभयसमवतार / भाव का अपने ही स्वरूप में समवतीर्ण होना प्रात्मभावसमवतार कहलाता है। जैसे-क्रोध का क्रोध के रूप में समवतीर्ण होना / भाव का स्वरूप और पररूप दोनों में समवतार होना तदुभयभावसमवतार है। जैसे-.--क्रोध का क्रोध के रूप में समवतार होने के साथ ही मान के रूप में समवतार होना तदुभयभावसमवतार है। [35] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy