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________________ 156] अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन--यहाँ छहनाम के प्रकरण में नाम और नामवाले अर्थों में अभेदोपचार करके छह भावों की प्ररूपणा की है। सूत्रोक्त उदइए-औदयिक प्रादि से औदयिकभाव, प्रौपशमिकभाव, क्षायिक भाव, क्षायोपशमिकभाव, पारिणामिकभाव और सान्निपातिकभाव इस प्रकार समग्र पद का ग्रहण किया गया है / इन श्रीदयिकभाव आदि के लक्षण इस प्रक 1. औदायिकभाव-ज्ञानावरण आदि पाठ प्रकार के कर्मों के विपाक का अनुभव करने को उदय कहते हैं / इस उदय का अथवा उदय से निष्पन्न भाव (पर्याय) का नाम प्रौदयिकभाव है / 2. औपशमिकभाव- सत्ता में रहते हए भी कर्मों का उदय में नहीं रहना अर्थात् प्रात्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रकट न होना या प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार के कर्मोदय का रुक जाना उपशम है। जैसे भस्मराशि से आच्छादित अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार इस उपशम अवस्था में कर्मो का उदय नहीं होता है, किन्तु वे सत्ता में स्थित रहते हैं। इस उपशम का नाम ही औपशमिकभाव है / अथवा इस उपशम से निष्पन्न भाव को प्रोपरामिकभाव कहते हैं / यह भाव सादिसान्त है। 3. क्षायिकभाव-कर्म के प्रात्यन्तिक विनाश होने को क्षय कहते हैं। यह क्षय ही क्षायिक है / अथवा क्षय से जो भाव उत्पन्न होता है वह क्षायिकभाव है। सारांश यह कि कर्म के प्रात्यन्तिक क्षय से प्रकट होने वाला भाव क्षायिकभाव है / यह भाव सादि-अनन्त है। 4. क्षायोपश मिकभाव-कर्मों का क्षय और उपशम होना क्षयोपशम है। यह क्षयोपशम हो क्षायोपशमिकभाव है / अथवा क्षयोपशम से जो भाव उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिकभाव है। यह भाव कुछ बझी हई और कुछ नहीं बुझी हुई अग्नि के समान जानना चाहिये। तात्पर्य यह हाय इस क्षयोपशम में कितनेक सर्वघातिस्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और कितनेक सर्वघातिस्पर्धकों का सदवस्था रूप उपशम होता है और देशघाति प्रकृति का उदय रहता है। इसीलिये इस भाव को कुछ बुझी हुई और कुछ नहीं बुझी हुई अग्नि की उपमा दी है। क्षयोपशम में कर्म के उदयावलिप्रविष्ट मंद रसस्पर्धकों का क्षय और अनुदीयमान रसस्पर्धकों की सर्वघातिनी विपाकशक्ति का निरोध या देशघाति रूप में परिणमन होता है। यद्यपि क्षयोपशम में कुछ कर्मों का उदय रहता है किन्तु उनकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाने के कारण वे जीव के गुणों को घातने में समर्थ नहीं होते हैं। पूर्णशक्ति के साथ कर्मों का उदय में न प्राकर क्षीणशक्ति होकर उदय में पाना ही यहाँ क्षय या उदयाभावी क्षय और सत्तागत सर्वघाति कर्मों का उदय में न आना ही सदवस्थारूप उपशम कहलाता है। यद्यपि देशपाती कर्मों का उदय होने की अपेक्षा यहाँ प्रौदयिक भाव भी माना जा सकता है किन्तु गुण के प्रकट होने वाले अंश की अपेक्षा इसे क्षायोपशमिकभाव कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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