________________ नामाधिकार निरूपण] [155 दीर्घ वर्णात्मक विकार किये जाने से ये विकारनिष्पन्ननाम के उदाहरण हैं / इसी प्रकार अन्यान्य विकारनिष्पन्न नामों का विचार स्वयं कर लेना चाहिये / शब्दशास्त्र की दृष्टि से सभी शब्द प्रकृति प्रत्यय प्रागम आदि किसी-न-किसी एक से निष्पन्न होते हैं / डित्थ, डवित्थ आदि अव्युत्पन्न माने गये शब्द भी शाकटायन के मत से व्युत्पन्न हैं और उनका इन पागम प्रादि चार नामों में से किसी न किसी एक में समावेश हो जाता है / यह चतुर्नाम की व्याख्या है। पंचनाम 232. से कि तं पंचनामे? पंचनामे पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा–नामिकं 1 नेपातिक 2 आख्यातिकं 3 औपसगिकं 4 मिथं 5 च / अश्व इति नामिकम्, खल्विति नेपातिकम्, धावतीत्याख्यातिकम्, परि इत्यौपगिकम्, संयत इति मिश्रम् / से तं पंचनामे। [232 प्र. भगवन् ! पंचनाम का क्या स्वरूप है ? [232 उ.] आयुष्मन् ! पंचनाम पांच प्रकार का है / वे पांच प्रकार हैं-१ नामिक, 2 नैपातिक, 3 श्राख्यातिक, 4 औपसगिक और 5 मिश्र / जैसे 'अश्व' यह नामिकनाम का, 'खलु' नैपातिकनाम का, 'धावति' आख्यातिकनाम का, 'परि' औपसगिक और ‘संयत' यह मिश्रनाम का उदाहरण है। यह पंचनाम का स्वरूप है / विवेचन-सूत्र में पंचनाम के पांच प्रकारों का निर्देश किया है। इन नामिक आदि पांचों में समस्त शब्दों का संग्रह हो जाने से ये पंचनाम कहे जाते हैं। क्योंकि शब्द या तो किसी वस्तु का वाचक होता है अथवा निपात से, क्रिया की मुख्यता से, उपसर्गों से, संज्ञा (नाम) के साथ उपसर्ग के संयोग से अपने अभिधेय-वाच्य का बोध कराता है। जैसे-..'अश्व' शब्द वस्तु का वाचक होने से नामिक है / 'खलु' शब्द निपातों में पठित होने से नैपातिक है। क्रिया-प्रधान होने से 'धावति' यह तिनन्त पद आख्यातिक है / 'परि' यह प्र, परा, अप, सम् आदि उपसर्गों में पठित होने से प्रौपसर्गिक है तथा 'संयत' यह सुबन्त पद सम् उपसर्ग और यत् धातु-इन दोनों के संयोग से बना होने के कारण मिश्र है। इस प्रकार से यह पंचनाम का स्वरूप है। छहनाम 233. से कि तं छनामे ? छनामे छविहे पण्णत्ते / तं जहाउदइए 1 उवसमिए 2 खइए 3 खओक्समिए 4 पारिणामिए 5 सन्निवातिए 6 / [233 प्र.) भगवन् ! छहनाम का क्या स्वरूप है ? [233 उ.] प्रायुष्मन् ! छहनाम के छह प्रकार कहे हैं। वे ये हैं-१. प्रौदयिक, 2. प्रोपशमिक, 3. क्षायिक, 4. क्षायोपशमिक, 5. पारिणामिक और 6. सान्निपातिक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org