________________ नामाधिकार निरूपण] [209 पुत्र-पुत्री के एक युगल को जन्म देती है, जिनका चौंसठ दिन तक पालन-पोषण करना पड़ता है। तत्पश्चात् वे स्वावलंबी हो जाते हैं और पति-पत्नी के रूप में सुखोपभोग करते विचरते हैं। शेष वर्णन प्रथम प्रारक के समान समझना चाहिये / सुषमदुषम-दूसरा पारा समाप्त होने पर दो कोडाकोड़ी सागरोपम का तीसरा आरा प्रारंभ होता है / इस बारे में पूर्व की अपेक्षा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की उत्तमता अनन्त गुणहीन हो जाती है। घटते-घटते देहमान एक कोस, एक पल्योपम आयुष्य और शरीर के चौंसठ करंडक (पसलियां) रह जाते हैं / एक दिन के अंतर से प्राहार की इच्छा होती है / पृथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा रह जाता है / मृत्यु के छह माह पूर्व युगलिनी पुत्र-पुत्री के जोड़े को जन्म देती है। उन्यासी दिन तक पालन-पोषण करने के बाद वह जोड़ा स्वावलंबी हो जाता है / शेष कथन पहले के समान जानना चाहिये / इन नीन आरों के लियंच भी युगलिया होते हैं। इस बारे के कालमान में दो विभागों के बीतने पर कालस्वभाव से, कल्पवृक्षों की फलदायिनी शक्ति हीन होते जाने से यगल मनुष्यों में परस्पर कल होने लगता है। इस कलह का अं अंत करने के लिये क्रम से पन्द्रह कुलकरों की उत्पत्ति होती है / वे लोकव्यवस्था करते हैं। कल्पवक्षों की फलदायिनी शक्ति के क्रमशः क्षीण होते जाने पर भी जैसे-तैसे उन्हीं के आधार से जीवननिर्वाह होते रहने से असि-ममि आदि के द्वारा आजीविका अजित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है / इसलिये पहले और दूसरे पारे के समान इस बारे में अकर्मभूमिक स्थिति बनी रहती है और युगल रूप में उत्पन्न होने से मनुष्य युगलिया कहलाते हैं / / ___ इस तीसरे नारे के समाप्त होने में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े पाठ मास शेष रह जाते हैं तब (अयोध्या नगरी में पन्द्रहवें कुलकर के यहाँ) प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है / वे लोकव्यवस्था स्थापित करने के लिये असि, मसि आदि द्वारा आजीविका अजित करने के उपाय बताते हैं। पुरुषों को बहत्तर और स्त्रियों को चौंसठ कलायें सिखाते हैं। राज्यव्यवस्था करते हैं। फिर राज्यवैभव को छोड़कर संयम ग्रहण करते हैं और केवलज्ञान प्राप्त होने पर तीर्थ की स्थापना करते हैं। दुषमसुषम- तीसरा पारा समाप्त होने पर बियालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागरोपम का चौथा पारा प्रारंभ होता है। इसमें दुःख अधिक और सुख थोड़ा होता है। पहले की अपेक्षा वर्णादि की, शुभ पुद्गलों की अनन्तगुण हानि हो जाती है / घटते-घटते देहमान पांच सौ धनुष और आयुष्य एक करोड़ पूर्व का रह जाता है। शरीर में बत्तीस पसलियां रह जाती हैं। दिन में एक बार भोजन की इच्छा होती है / छहों संहननों, छहों भंस्थानों वाले और पांचों गतियों (संसार की चार गति, एक मुक्ति गति) में जाने वाले मनुष्य होते हैं। तेईस तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव भी इसी पारे में होते हैं। दुषम--चौथे आरे के समाप्त होने पर इक्कीस हजार वर्ष कालमान वाला पांचवां पारा प्रारंभ होता है / चौथे आरे को अपेक्षा वर्णादि और शुभ पुद्गलों में अनन्तगुणी हीनता हो जाती है / प्रायु घटते-घटते 125 वर्ष की, शरीर-अवगाहना सात हाथ की और शरीर में पसलियां सोलह रह जाती हैं / दिन में दो बार आहार करने की इच्छा होती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org