________________ 210] [अनुयोगद्वारसूत्र पांचवें पारे में केवलज्ञान, जिनकल्पी मुनि प्रादि दस बातों का अभाव हो जाता है / पापाचार की वृद्धि होती जाती है / पाखंडियों की पूजा होती है, धर्म के प्रति रुचि का प्रभाव बढ़ता जाता है आदि। इन सब कारणों से इस पारे को दुषम कहते हैं / दुषमदुषम-पांचवें पारे के पूर्ण होने पर इक्कीस हजार वर्ष का यह छठा पारा प्रारंभ होता है। इस बारे में पहले की अपेक्षा वर्ण आदि में शुभ पुद्गलों की अनन्तगुणी हानि हो जाती है। पायु घटते-घटते बीस वर्ष की और शरीर की ऊँचाई एक हाथ की रह जाती है। शरीर में पाठ पसलियां होती हैं / अपरिमित पाहार की इच्छा होती है। रात्रि में शीत और दिन में ताप अत्यन्त प्रबल होता है। मनुष्य बिलों में रहते हैं। गंगा-सिन्धु नदियां सांप के समान बांकी गति से बहती हैं। गाड़ी का प्राधा पह्यिा डूबे, इतनी उनकी गहराई होती है। मछली आदि जलचर जीव बहुत होते हैं। जिन्हें मनुष्य पकड़कर नदी की रेत में गाड़ देते हैं और शीत व गरमी के योग से पक जाने पर लूटकर खा जाते हैं / मृतक मनुष्य की खोपड़ी में पानी पीते हैं / जानवर मरी हुई मछलियों आदि को हड्डियां खाकर जीवनयापन करते हैं। मनुष्य दीन, हीन, दुर्जन, रुग्ण, अपवित्र, आचार-विचार से हीन होते हैं / धर्म से हीन वे दुःख ही दुःख में अपनी आयु व्यतीत करते हैं। छह वर्ष की आयु वाली स्त्री संतान का प्रसव करती है। इन सब कारणों से इस बारे का नाम दुषमदुषम है। धाराओं का यह क्रम अवपिणीकाल की अपेक्षा से है। अक्सपिणीकाल के समाप्त होने पर उत्सपिणीकाल प्रारंभ होता है / वह भी इन्हीं छह बारों में विभक्त है, किन्तु प्रारों का क्रम विपरीत होता है। अर्थात् उत्सर्पिणी का प्रथम पारा दुषमदुषम है और छठा सुषम-सुषम। इनका स्वरूप पूर्वोक्त ही है। भावसंयोगनिष्पन्ननाम 279. से कि तं भावसंजोगे ? भावसंजोगे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा—पसत्थे य 1 अपसत्थे य 2 // [279 प्र.] भगवन् ! भावसंयोगनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [279 उ.] आयुष्मन् ! भावसंयोगजनाम के दो प्रकार हैं / यथा-१. प्रशस्तभावसंयोगज, 2. अप्रशस्तभावसंयोगज / 280. से कि तं पसत्थे ? पसत्थे नाणेणं नाणी, दंसणेणं दसणी, चरित्तेणं चरिती / से तं पसत्थे / [280 प्र.] भगवन् ! प्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [280 उ.] आयुष्मन् ! (ज्ञान, दर्शन आदि प्रशस्त (शुभ) भाव रूप होने से) ज्ञान के संयोग से ज्ञानी, दर्शन के संयोग से दर्शनी, चारित्र के संयोग से चारित्री नाम होना प्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org