SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाधिकार निरूपण 1283 है / संख्यात राशि से गुणित लोक 'संख्यातलोक', असंख्यात राशि से गुणित लोक 'असंख्यातलोक' और अनन्त राशि से गुणित लोक 'अनन्तलोक' कहलाता है। 362. एतेसि गं सेढीअंगुल-पयरंगुल-घणंगुलाणं कतरे कतरेहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ? ___सव्वत्थोवे सेढिअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंखेज्जगुणे / से तं पमाणंगुले / से तं विभागनिष्फण्णे / से तं खेतप्पमाणे। [362 प्र.] भगवन् ! इन श्रेण्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [362 उ.] आयुष्मन् ! श्रेण्यंगुल सर्वस्तोक (सबसे छोटा-अल्प) है, उससे प्रतरांगुल असंख्यात गुणा है और प्रतरांगुल से घनांगुल असंख्यात गुणा है / इस प्रकार में प्रमाणांगुल की, साथ ही विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण और क्षेत्रप्रमाण की वक्तव्यता पूर्ण हुई। विवेचन-प्रस्तुत में 'असंखेज्जायो जोयणकोडाकोडीओ सेढी' पद का यह आशय है कि जो योजन प्रमाणांगल से निष्पन्न हो वही योजन यहाँ ग्रहण करना चाहिये और ऐसे प्रमाणांगुल से निष्पन्न योजन की असंख्यात कोडाकोडी संवर्तित चतुरस्त्रीकृत लोक की एक श्रेणी होती है। एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर प्राप्त संख्या को कोडाकोडी कहते हैं / ___ यद्यपि सूत्र में घनागुल के स्वरूप का संकेत नहीं किया है लेकिन, यह पहले बताया जा चुका है कि घनांगल से किसी भी वस्तु की लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई का परिमाण जाना जाता है। अतएव यहाँ घनीकृत लोक के उदाहरण द्वारा धनांगुल का स्वरूप स्पष्ट किया है। लोक को घनाकार समचतुरस्र रूप करने की विधि इस प्रकार है-समग्र लोक ऊपर से नीचे तक चौदह राजू प्रमाण है। उसका विस्तार नीचे सात राजू, मध्य में एक राजू, ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक तक के मध्यभाग में पांच राजू और शिरोभाग में एक राजू है। यही शिरोभाग लोक का अन्त है। इस प्रकार की लम्बाई, चौडाई प्रमाण वाले लोक की प्राकृति दोनों हाथ कमर पर रखकर नाचते हुए पुरुष के समान है। इसीलिये लोक को पुरुषाकार संस्थान से संस्थित कहा है / इस लोक के ठीक मध्यभाग में एक राजू चौड़ा और चौदह राजू ऊंचा क्षेत्र त्रसनाड़ी कहलाता है। इसे त्रसनाड़ी कहने का कारण यह है कि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के ससंज्ञक जीवों का यही वास स्थान है। अब इस चौदह राज प्रमाण वाले ऊंचे लोक के कल्पना से अधोदिशावर्ती लोकखंड का पूर्व दिशा वाला भाग जो कि अधस्तनभाग में साढ़े तीन राजू प्रमाण विस्तृत है और फिर क्रम से ऊपर 1. मध्यलोकवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्रों में सबसे अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र की पूर्व तटवर्ती वेदिका के अन्त से लेकर उसकी पश्चिम तटवर्ती वेदिका के अन्त तक को राजू का प्रमाण समझना चाहिये / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy