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________________ 284] अनुयोगद्वारसूत्र की ओर हीयमान विस्तार वाला होता हा अर्धराज प्रमाण एवं सात राज ऊंचा है, को लेकर पश्चिम दिशा वाले पार्श्व में ऊपर का भाग नीचे की ओर और नीचे का भाग ऊपर की ओर करके इकट्ठा रख दिया जाये, फिर ऊर्ध्वलोक में भी समभाग करके पूर्व दिशावर्ती दो त्रिकोण रूप दो खण्ड हैं, जो कि प्रत्येक साढ़े तीन राजू ऊंचे होते हैं, उन्हें भी कल्पना में लेकर विपरीत रूप में अर्थात् दक्षिण भाग को उल्टा और उत्तर भाग को सीधा करके इकट्ठा रख दिया जाए। इसी प्रकार पश्चिम दिशावर्ती दोनों त्रिकोणों को भी इकट्ठा किया जाए, ऐसा करने पर लोक का वह अर्धभाग भी साढ़े तीन राजू का विस्तार वाला और सात राजू की ऊंचाई वाला होगा। तत्पश्चात् उस ऊपर के अर्धभाग को नीचे के अर्धभाग के साथ जोड़ दिया जाये। ऐसा करने पर लोक सात राजू ऊंचा और सात राजू चौड़ा घनरूप बन जाता है / इस लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई का परस्पर गुणा करने पर (sx 747= 343) तीन सौ तेतालीस राजू धन फल लोक का होता है। सिद्धान्त में जहाँ कहीं भी बिना किसी विशेषता के सामान्य रूप से श्रेणी अथवा प्रतर का उल्लेख हो वहाँ सर्वत्र इस घनाकार लोक की सात राजू प्रमाण श्रेणी अथवा प्रतर समझना चाहिये। इसी प्रकार जहाँ कहीं भी सामान्य रूप से लोक शब्द ग्राए, वहाँ इस घनरूप लोक का ग्रहण करना चाहिये / संख्यात राशि से गुणित लोक की संख्यातलोक, असंख्यात राशि से गुणित लोक की असंख्यातलोक तथा अनन्त राशि से गुणित लोक की अनन्तलोक संज्ञा है। यद्यपि अनन्तलोक के बराबर अलोक है और उसके द्वारा जीवादि पदार्थ नहीं जाने जाते हैं, तथापि वह प्रमाण इसलिये है कि उसके द्वारा अपना----अलोक का स्वरूप तो जाना ही जाता है। अन्यथा अलोकविषयक बुद्धि ही उत्पन्न नहीं हो सकती है। इस प्रकार से विभागनिष्पन्न एवं समस्त क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा जानना चाहिये। कालप्रमाण प्ररूपण 363. से कि तं कालप्पमाणे? कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पदेसनिष्फण्णे य विभागनिष्फण्णे य / [363 प्र.] भगवन् ! कालप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [363 उ.] आयुष्मन् ! कालप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है- 1. प्रदेशनिष्पन्न, 2. विभागनिष्पन्न / 364. से किं तं पदेसनिष्फण्णे ? पदेसनिष्फण्णे एगसमयद्वितीए दुसमयद्वितीए तिसमय द्वितीए जाब दससमयद्वितीए संखेज्जसमयद्वितीए असंखेन्जसमयदिईए / से तं पदेसनिष्फण्णे / |364 प्र.] भगवन् ! प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [364 उ.] आयुष्मन् ! एक समय की स्थिति बाला, दो समय की स्थिति वाला, तीन समय की स्थिति वाला, यावत् दस समय की स्थिति वाला, संख्यात समय की स्थिति वाला, असंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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