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________________ 280 [अनुयोगद्वारसूत्र 357. एएसि णं सूचीअंगुल-पयरंगुल-धणंगलाणं कतरे कतरेहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा? __ सम्वत्थोवे सूईअंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, धणंगुले असंखेज्जगुणे। से तं उस्सेहंगुले / [357 प्र.] भगवन् ! इन सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [357 उ.] इनमें सर्वस्तोक (सबसे छोटा) सूच्यंगुल है, उससे प्रतरांगुल असंख्यातगुणा और प्रतरांगुल से घनांगुल असंख्यातगुणा है / इस प्रकार यह उत्सेधांगुल का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-पात्मांगुल की तरह यह उत्सेधांगुल भी सूची, प्रतर और धन के भेद से तीन प्रकार का है। इनका स्वरूप तथा अल्पबहुत्व एवं अल्पबहुत्व के कारण को प्रात्मांगुलवत् समझ लेना चाहिए। प्रमाणांगुलनिरूपण 358. से कि तं पमाणंगुले? पमाणंगुले एगमेगस्स णं रणो चाउरंतचक्कट्टिस्स अट्ठ सोवण्णिए कागणिरयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्ठकण्णिए अहिगरणिसंठाणसंठिए पण्णत्ते, तस्स णं एगमेगा कोडो उस्सेहंगुलविक्खंभा, तं समणस्स भगवनो महावीरस्स अद्धंगुलं, तं सहस्सगुणं पमाणंगुलं भवति / [358 प्र.) भगवन् ! प्रमाणांगुल का क्या स्वरूप है ? [358 उ.] प्रायुष्मन् ! (परम प्रकर्ष रूप परिमाण को प्राप्त--सबसे बड़े अंगुल को प्रमाणांगुल कहते हैं / ) भरतक्षेत्र पर अखण्ड शासन करने वाले चक्रवर्ती राजा के अष्ट स्वर्णप्रमाण, छह तल बाले, बारह कोटियों और पाठ कणिकाओं से युक्त अधिकरण संस्थान (सुनार के एरण जैसे आकार वाले) काकणीरत्न की एक-एक कोटि उत्सेधांगुल प्रमाण विष्कभ (चौड़ाई) वाली है, उसकी वह एक कोटि श्रमण भगवान् महावीर के अर्धागुल प्रमाण है / उस अर्धांगुल से हजार गुणा (अर्थात् उत्सेधांगुल से हजार गुणा) एक प्रमाणांगुल होता है। 359. एतेणं अंगुलष्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दो पाया-दुवालस अंगुलाई विहत्थो, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छो, दो कुच्छीमो धण, दो घणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाई जोयणं / 359] इस अंगुल से छह अंगुल का एक पाद, दो पाद अथवा बारह अंगुल की एक वितस्ति, दो वितस्तियों की रत्लि (हाथ), दो रत्नि की एक कुक्षि होती है। दो कुक्षियों का एक धनुष, दो हजार धनुष का एक गव्यूत और चार गव्यूत का एक योजन होता है। विवेचन-इन दो सूत्रों में से पहले में प्रमाणांगुल का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ बतला कर उसके यथार्थ मान का निर्देश किया है। इसी प्रसंग में चक्रवर्ती राजा का स्वरूप, उसके प्रमुख रत्न काकणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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