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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [281 का प्रमाण और श्रमण भगवान् महावीर के आत्मांगुल का मान बता दिया है। इस तरह एक ही प्रसंग में अनेक वस्तुओं का निर्देश करके जिज्ञासुनों को सुगमता से बोध कराया है। प्रमाणांगुल' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ सुगम है। चक्रवर्ती राजा का लक्षण बताने से लिये 'एगमेगस्स' और 'चाउरंतचक्कवट्टिस्स' यह षष्ठी विभक्त्यन्त दो विशेषण दिये हैं। इनमें से एगमेगस्स विशेषण का अर्थ यह है कि एक समय में एक क्षेत्र में एक ही चक्रवर्ती राजा होता है, अधिक नहीं / जम्बूद्वीप में कर्मभूमिक क्षेत्र भरत और ऐरवत ये दो हैं / इनके सिवाय शेष क्षेत्र अकर्मभूमिक (भोगभूमिक) हैं। उनमें शासक, शासित प्रादि व्यवस्था नहीं होती है। अतएव भरतक्षेत्रापेक्षा दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन तीन दिशाओं में फैले हुए लवणसमुद्र और उत्तर में हिमवन्पर्वत पर्यन्त तक पांच म्लेच्छ और एक आर्यखंड इस प्रकार छह खण्डों से मंडित सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को विजित कर एकच्छत्र शासन करने वाले राजा चातुरंतचक्रवर्ती कहलाते हैं।' तीर्थकरों की तरह चक्रवर्ती राजा भी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के तीसरे, चौथे पारे में होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती सात एकेन्द्रिय और सात पंचेन्द्रिय, कुल चौदह रत्नों का स्वामी होता है / अपनी-अपनी जाति में सर्वोत्कृष्ट होने के कारण इन्हें रत्न कहा जाता है। प्रस्तुत में उल्लिखित काकणीरत्न पार्थिव है और वह पाठ सुवर्ण जितना भारी (वजन वाला) होता है। सुवर्ण उस समय का एक तोल था। इसका विवरण पूर्व में बताया जा चुका है। साथ ही उसके आकार-संस्थान आदि का उल्लेख करते हुए बताया है कि वह चारों ओर से सम होता है। उसकी आठ कणिकायें और बारह कोटियां होती हैं। प्रत्येक कोटि एक उत्सेधांगुल विष्कंभ प्रमाण होती है। काकणीरत्न विष को नष्ट करने वाला होता है। यह सदा चक्रवर्ती के स्कन्धाबार में स्थापित रहता है। इसकी किरणे बारह योजन तक फैलती हैं / जहाँ चंद्र, सूर्य, अग्नि आदि अंधकार को नष्ट करने में समर्थ नहीं होते, ऐसी तमिस्रा गुफा में यह काकणी रत्न अंधकार को समूल नष्ट कर देता है। 'चउरंगूलप्पमाणा सूवण्णवरकागणी तेये ति' अर्थात चतुरंगुल प्रमाण काकणीरत्न जानना चाहिये, ऐमा किसी-किसी ग्रन्थ में कहा गया है। लेकिन तथाविध संप्रदाय की उपलब्धि न 1. ऐश्वत क्षेत्र की अपेक्षा पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में फैले लवणसमुद्र और दक्षिण दिशा में शिखरी पर्वत पर्यन्त के ऐरवत क्षेत्र को विजित करने वाले समझना चाहिये। 2. विष्कंभ शब्द का प्रयोग काकिणीरत्न की समचतुरस्रता का बोध कराने के लिये किया है कि इसका मायाम-लम्बाई और विष्कंभ---चौड़ाई समान है और प्रत्येक उत्सेधांगुल प्रमाण है। क्योंकि ऊंची करने पर जो कोटि अभी आयाम वाली-लम्बी है, वही तिरछी करने पर विष्कभ वाली-चौड़ी हो जाती है। अतएव पायाम और विष्कंभ इन में से किसी एक का निर्णय हो जाने पर दूसरा स्वयं निर्णीत हो जाता है। 3. अनुयोगद्वारसूत्रवत्ति, पत्र 171 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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