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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण अल्पकालिक और यावत्कथिक यानी आजीवन (जीवन भर, यावज्जीवन के लिये ग्रहण किया जाने वाला।) भरत और ऐरवत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में महाव्रतों का आरोपण नहीं किया गया हो तब तक शैक्ष (नवदीक्षित) का चारित्र इत्वरिक सामायिकचारित्र है। इसको धारण करने वाले वाद में प्रतिक्रमण सहित अहिंसा, सत्य आदि पांच महाव्रत अंगीकार करते हैं तथा इसके स्वामी स्थितकल्पी होते हैं एवं कालमर्यादा उपस्थापन पर्यन्त (बड़ी दीक्षा लेने तक) मानी जाती है / यावत्कथिक सामायिकचारित्र भरत, ऐरवत क्षेत्रों में मध्य के बाईस तीर्थकरों के साधुनों में और महाविदेह के तीर्थंकरों के साधुओं में होता है। क्योंकि उनकी उपस्थापना नहीं होती, अर्थात उन्हें महावतारोपण के लिये दूसरी बार दीक्षा नहीं दी जाती है / इस संयम को धारण करने वालों के महावत चार और कल्प स्थितास्थित होता है।' छेदोपस्थापनिकचारित्र-जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद और पुनः महाव्रतों की उपस्थापना की जाती है, वह छेदोपस्थापनिकचारित है। यह छेदोपस्थापनिकचारित्र सातिचार और निरतिचार के भेद से दो प्रकार का है। सातिचार छेदोपस्थापनिकचारित्र मूलगुणों (महानतों) में से किसी का विधात करने वाले साधु को पुन: महाव्रतोच्चारपूर्वक दिया जाता है / निरतिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र इत्वरिक सामायिक वाले शैक्ष (नवदीक्षित) बड़ी दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने पर अंगीकार किया जाता है / जैसे पार्श्वनाथ के केशी प्रादि श्रमण जब भगवान महावीर के तीर्थ में सम्मिलित हए थे तब पुनर्दीक्षा के रूप में इसी संयम को ग्रहण किया था / यह छेदोपस्थापनिकचारित्र भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में ही होता है / सामायिक में संपूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम रूप में ग्रहण किया जाता है और छेदोपस्थापनिकचारित्र में उसी एक यम-बत को अहिंसामहावत आदि पांच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके ग्रहण किया जाता है / किन्तु इन दोनों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है। परिहारविशद्धिचारित्र-परिहार का अर्थ है तपोविशेष और उस तपोविशेष से जिस चारित्र में विशुद्धि प्राप्त की जाती है, उसे परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। इसके दो भेद हैं१. निविश्यमानक, 2. निविष्टकायिक / / जिस चारित्र में साधक प्रविष्ट होकर तपोविधि के अनुसार तपश्चरण कर रहे हों, उसे निविश्यमानक परिहारविशुद्धिचारित्र और जिस चारित्र में साधक तपोविधि के अनुसार तपाराधना कर चुके हैं, उस चारित्र का नाम निविष्टकायिक परिहारविशुद्धिचारित्र है 1 निविश्यमानक तपाराधना करते हैं और निविष्टकायिक उन तपाराधकों की सेवा करते हैं। परिहारविशुद्धितपाराधना की संक्षेप में विधि इस प्रकार है--- 1. आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातर पिंड; राजपिंड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पर्युषणा-इन दस कल्पों में जो स्थित हैं वे स्थितकरूपी तथा शव्यातर पिड, व्रत, ज्येष्ठ तथा कृतिकर्म इन चार नियमों में स्थित तथा शेष छह कल्पों में जो प्रस्थित होते हैं, वे स्थितास्थित कल्पी कहलाते हैं।---आवश्यक हरिभद्रीयत्ति, पृ. 790 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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