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________________ 382] [अनुयोगद्वारसूत्र इस प्रकार से चारित्रगुणप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये। इसका वर्णन करने पर जीव गुणप्रमाण तथा गुणप्रमाण का कथन समाप्त हुआ। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में भेदों-प्रकारों के माध्यम से चारित्रगुणप्रमाण का निरूपण किया है। ज्ञान, दर्शन, सुख आदि की तरह चारित्र भी जीव का स्वभाव-धर्म है / क्योंकि स्वरूप में रमण करना, स्वभाव में प्रवृत्ति करना चारित्र है। यह सर्वसावद्ययोगविरति रूप है। चारित्र के भेद-- संसार की कारणभूत वाह्य और अंतरंग क्रियाओं से निवत्ति रूप होने से सामान्यापेक्षया चारित्र एक ही है। चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होने वाली विशुद्धि की दृष्टि से भी चारित्र एक है। किन्तु जब विभिन्न दृष्टिकोणों से चारित्र का विचार करते हैं तो उसके विभिन्न प्रकार हो जाते हैं। जैसे-वाह्य व आभ्यन्तर निवृत्ति अथवा व्यवहार और निश्चय को अपेक्षा अथवा प्राणीसंयम व इन्द्रियसंयम की अपेक्षा वह दो प्रकार का है / औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। छद्मस्थों का सराग और वीतराग चारित्र तथा सर्वज्ञों का सयोग और प्रयोग चारित्र, अथवा स्वरूपाचरणचारित्र, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्र के भेद से चार प्रकार का है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात के भेद से पांच प्रकार का है। इसी तरह विविध निवृत्ति रूप परिणामों की दृष्टि से संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्प-भेद हो सकते हैं। परन्तु यहाँ अति संक्षेप और अति विस्तार से भेदों को न बताकर पांच भेद बतलाये हैं। जिनमें सभी अपेक्षाओं से किये जाने वाले प्रकारों का अन्तर्भाव हो जाता है / __सामायिकचारित्र-सम् उपसर्गपूर्वक गत्यर्थक अंय धातु से स्वार्थ में इक् प्रत्यय लगाने से सामायिक शब्द निष्पन्न होता है / सम् अर्थात् एकत्वपने से 'माय' अर्थात् आगमन / अर्थात् परद्रव्यों से निवृत्त होकर उपयोग की आत्मा में प्रवृत्ति होना सामायिक है। अथवा 'सम्' का अर्थ है रागद्वष रहित मध्यस्थ प्रात्मा / उसमें 'पाय' अर्थात् उपयोग की प्रवृत्ति समाय है। यह समाय ही जिसका प्रयोजन है, उसे सामायिक कहते हैं। अथवा सम का अर्थ है--सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इनके प्राय-लाभ अथवा प्राप्ति को समाय कहते हैं। अथवा 'समाय' शब्द साधु की समस्त क्रियाओं का उपलक्षण है / क्योंकि साधु को समस्त क्रियायें राग-द्वेष से रहित होती हैं / इस 'समाय' से जो निष्पन्न हो, संपन्न हो, उसे सामायिक कहते हैं। अथवा समाय में होने वाला सामायिक है। अथवा समाय ही सामायिक है / इसका तात्पर्य यह हुआ कि सर्वसावध कार्यों से निवृत्ति, विरति / महाव्रतधारी साधु-साध्वियों के चारित्र को सामायिकचारित्र कहा गया है। क्योंकि महाव्रतों को अंगीकार करते समय समस्त सावध कार्यों-योगों से निवृत्ति रूप सामायिकचारित्र ग्रहण किया जाता है। यद्यपि सामायिकचारित्र में छेदोपस्थापना आदि उत्तरवर्ती समस्त चारित्रों का अन्तर्भाव हो जाता है, तथापि उन चारित्रों से सामायिक चारित्र में उत्तरोत्तर विशुद्धि और विशेषता पाने के कारण उनका पृथक् निर्देश किया है। सामायिकचारित्र के दो भेद हैं-१ इत्वरिक और यावत्कथिक / ' इत्वरिक का अर्थ है१. दिगम्बर साहित्य में नियतकालिक और अनियतकालिक शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु प्राशय में अंतर नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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