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________________ 384] [अनुयोगद्वारसूत्र ____ नौ साधु मिलकर इस परिहारतप की आराधना करते हैं / उनमें से चार साधक निविश्यमानक-तप का आचरण करने वाले होते हैं तथा शेष रहे पांच में से चार उनके अनुपारिहारिक अर्थात् वैयावृत्य करने वाले होते हैं और एक साधु कल्पस्थित बाचनाचार्य होता है।' निविश्यमान साधक ग्रीष्मकाल में जघन्य चतुर्थभक्त (एक उपवास), मध्यम षष्ठभक्त (दो उपवास) और उत्कृष्ट अष्टमभक्त (तीन उपवास) करते हैं / शीतकाल में जघन्य दो, मध्यम तीन और उत्कृष्ट चार उपवास तथा वर्षाकाल में जघन्य तीन, मध्यम चार और उत्कृष्ट पांच उपवास करते हैं / यह क्रम छह मास तक चलता है और पारणा के दिन अभिग्रह सहित आयंबिलवत' करते हैं। भिक्षा में पांच वस्तुओं का ग्रहण और दो का अभिग्रह होता है। कल्पस्थितपरिचारक पद ग्रहण करने वाले, वैयावृत्य करने वाले सदा पायंबिल ही करते हैं। इस प्रकार छह महीने तक तप करने वाले (निविश्यमानक) साधक बाद में अनुपारिहारिक (वैयावत्य करने वाले) बनते हैं और जो अभी अनुपरिहारिक थे, वे छह महीने के लिये परिहारिक (तपाराधक) बन जाते हैं / ये भी पूर्व तपस्वियों की तरह तपाराधना करते हैं। दूसरे छह मास के बाद तीसरे छह मास के लिये वाचनाचार्य ही तपस्वी बनते हैं और शेष आठ साधूत्रों में से सात अनुचारी और एक वाचनाचार्य बनते हैं। इस प्रकार तीसरे छह मास पूर्ण होने के बाद अकारह माह की यह परिहारविशुद्धितपाराधना पूर्ण होती है। कल्प समाप्त हो जाने वे साधक या तो जिनकल्प को अंगीकार कर लेते हैं अथवा अपने गच्छ में पुन: लौट आते हैं या पुनः वैसी ही तपस्या प्रारंभ कर देते हैं / इस परिहारतप के प्रतिपद्यमानक इसे तीर्थकर भगवान के सान्निध्य में अथवा जिसने इस कल्प को तीर्थकर से स्वीकार किया हो उसके पास से अंगीकार करते हैं, अन्य के पास नहीं। ऐसे मनियों का चारित्र परिहारविशुद्धिचारित्र है। यह चारित्र जिन्होंने छेदोषस्थापनाचारित्र अंगीकार किया हुआ होता है, उन्हीं को होता है। इस संयम का अधिकारी बनने के लिये गहस्थपर्याय (उम्र) का जघन्य प्रमाण 29 वर्ष तथा साधूपर्याय (दीक्षाकाल) का जघन्य प्रमाण 20 वर्ष और दोनों का उत्कृष्ट प्रमाण कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष माना है। इस संयम के अधिकारी को साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान होता है / इस संयम के धारक मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा व विहार कर सकते हैं और अन्य समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि / 1. यद्यपि इसके साधक श्रुतातिशयसंपन्न होते हैं तथापि वह एक प्रकार का कल्प होने के कारण उनमें एक कल्पस्थित प्राचार्य स्थापित किया जाता है। 2. प्रायंबिल एक प्रकार का व्रत है, जिसमें विगय-धी, दूध आदि रस छोड़कर केवल दिन में एक बार अन्न खाया जाता है तथा गरम किया हुया (प्राशुक)पानी पिया जाता है। -श्रावश्यकनियुक्ति गा. 1603-5 3. पंचवस्तुक गा. 1494 4. दिगम्बर साहित्य में इसके बारे में थोड़ा-सा मतभेद है। उसमें तीस वर्ष की उम्र वाले को इस संयम का अधिकारी माना है और नी पूर्व का ज्ञान प्रावश्यक बताया है। तीर्थंकर के सिवाय और किसी के पास इस संयम को ग्रहण करने की मनाई है तथा तीन संध्यारों को छोड़कर दिन के किसी भाग में दो कोस जाने की सम्मति दी है। -- गो. जीवकाण्ड गा. 437 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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