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________________ आनुपूर्वी निरूपण [108-2 उ.] अायुष्मन् ! एक अनानपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा वह लोक के संख्यातवें भाग में अवगाढ नहीं है, असंख्यानवें भाग में अवगाढ है, न संख्यात भागों में, न असंख्यात भागों में और न सर्वलोक में अवगाढ है, किन्तु अनेक अनानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोक में अवगाढ है। [3] एवं अवत्तथ्वगदम्वाणि वि / [108-3] इसी प्रकार प्रवक्तव्यद्रव्य के विषय में भी जानना चाहिये / (यह क्षेत्र प्ररूपणा का प्राशय है।) विवेचन--सूत्र में प्रानुपूर्वी प्रादि द्रव्यों के क्षेत्र विषयक पांच प्रश्नों के उत्तर दिये हैं / वे पांच प्रश्न इस प्रकार हैं.-- 1. पानुपूर्वी प्रादि द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं ? अथवा 2. असंख्यातवें भाग में रहते हैं ? अथवा 3. लोक के संख्यात भागों में रहते हैं ? अथवा 4. असंख्यात भागों में रहते हैं ? अथवा 5. समस्त लोक में रहते हैं ? यह पूर्व में बताया जा चुका है कि कम से कम त्र्यणुक स्कन्ध प्रानुपूर्वीद्रव्य है तथा द्वयणुक स्कन्ध और परमाणु क्रमश: प्रवक्तव्य एवं अनानुपूर्वी द्रव्य हैं। यह त्र्यणक आदि का व्यवहार पुद्गलद्रव्य में ही होता है। अतएव पुद्गलद्रव्य का आधार यद्यपि सामान्य से तो लोकाकाश रूप क्षेत्र नियत है / परन्तु विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पुदगलद्रव्यों के आधारक्षेत्र के परिमाण में अंतर होता है। अर्थात् अाधारभूत क्षेत्र के प्रदेशों की संख्या प्राधेयभूत पुद्गलद्रव्य के परमाणुओं की संख्या से न्यून या उसके बराबर हो सकती है, अधिक नहीं। इसलिये एक परमाणु रूप अनानुपूर्वीद्रव्य आकाश के एक ही प्रदेश में स्थित रहता है परन्तु द्वयणुक एक प्रदेश में भी रह सकता है और दो प्रदेशों में भी। इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढ़ते-बढ़ते त्र्यणुक, चतुरणुक यावन् संख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश, दो प्रदेश, तीन प्रदेश यावन् संख्यात प्रदेशरूप क्षेत्र में ठहर सकते है / संख्याताणुक द्रव्य की स्थिति के लिये असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार असंख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश से लेकर अधिक से अधिक अपने बराबर के असंख्यात संख्या वाले प्रदेशों के क्षेत्र में ठहर सकता है। किन्तु अनन्ताणुक और अनन्तानंतागुक स्कन्ध के विषय में यह जानना चाहिये कि वह एक प्रदेश, दो प्रदेश इत्यादि क्रम से बढ़ते-बढ़ते संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र में ठहर सकते हैं। उनकी स्थिति के लिये अनन्त प्रदेशात्मक क्षेत्र की जरूरत नहीं है। पुद्गलद्रव्य का सबसे बड़ा स्कन्ध, जिसे अचित्त महास्कन्ध कहते हैं और जो अनन्तानन्त गुणों का बना होता है, वह भी असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में ही ठहर जाता है। लोकाकारा के प्रदेश असंख्यात ही हैं और उससे वाहर पुद्गल की अवगाहना संभव नहीं है। उपर्युक्त समग्र कथन प्रानुपूर्वी प्रादि एक-एक द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए / किन्तु अनेक की अपेक्षा इन समस्त द्रव्यों का अवगाहन समस्त लोकाकाश में है / जिसका स्पष्टीकरण 'नाणादबाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा' पद द्वारा किया गया है / अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणुगों से निष्पन्न अचित्त महास्कन्धरूप प्रानुपर्वीद्रव्य के एक समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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