________________ 70) अनुयोगद्वारसूत्र असंख्यातप्रदेशी आकाश रूप क्षेत्र में अनन्त प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का अवस्थान कैसे संभव है ? इसका उत्तर यह है कि क्योंकि पुद्गल का परिणमन अचिन्त्य है और प्राकाश में अवगाहन शक्ति है / जैसे एक प्रदीप की प्रभा से व्याप्त एक गहान्तर्वर्ती अाकाश प्रदेशों में दूसरे और भी अनेक प्रदीपों की प्रभा का अवस्थान होता है, इसी प्रकार प्रानुपूर्वी आदि अनन्त द्रव्यों को असंख्यातप्रदेशी ग्राकाश में उसकी अवगाहनशक्ति के योग से एवं पुदगल परिणमन की विचित्रता से अवस्थिति होने में और प्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों को अनन्त मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है। प्रस्तुत में प्रयुक्त ‘एवं दोणि वि' के स्थान पर किसी-किसी प्रति में निम्नलिखित पाठ है-. 'एवं अणाणुपुब्बीदव्वाइं अवत्तव्वगदब्वाइं च अणंताई भाणिग्रवाई।' जिम में संक्षेप और विस्तार की अपेक्षा शब्दों में अन्तर है, लेकिन दोनों का प्राशय समान है। क्षेत्रप्ररूपणा 108. [1] णेगम-ववहाराणं आणुपुत्वीदवाई लोगस्स कतिभागे होज्जा? कि संखेज्जइभागे होज्जा ? असंस्खेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सवलोए होज्जा ? __ एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा असंखेज्जइभागे वा होज्जा संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा सम्बलोए बा होज्जा, नाणादम्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा। [108-1 प्र.] भगवन् ! नैगम व्यवहारनयसंमत ग्रानुपूर्वी द्रव्य (क्षेत्र के) कितने भाग में अवगाढ हैं ? क्या लोक के संख्यातवें भाग में अवगाढ हैं ? असंख्यातवें भाग में अवगाढ हैं ? क्या संख्यात भागों में अवगाढ हैं ? असंख्यात भागों में अवगाढ हैं ? अथवा समस्त लोक में अवगाढ हैं ? [108-1 उ.] आयुष्मन् ! किसी एक प्रानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा कोई लोक के संख्यातवें भाग में प्रवगाढ है, कोई एक प्रानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है तथा कोई एक प्रानुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यात भागों में रहता है और कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात भागों में रहता है और कोई एक द्रव्य समस्त लोक में अवगाढ होकर रहता है। किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा तो वे नियमतः समस्त लोक में अवगाढ हैं। [2] नेगम-ववहाराणं अणाणुपुन्वीदवाई कि लोगस्स संखेज्जइभागे होज्जा? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए वा होज्जा ? एगदवं पडुच्च नो संखेज्जइभागे होज्जा असंखेज्जइभागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो सव्वलोए होज्जा, णाणादब्वाइं पडुच्च नियमा सवलोए होज्जा। [108-2 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में अवगाढ हैं? असंख्यात भाग में अवगाढ हैं ? संख्यात भागों में हैं या असंख्यात भागों में हैं अथवा समस्त लोक में अवगाढ हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org