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________________ मानाधिकार निरूपण [ 17 [260-10 उ] गीत के आठ गुण और भी हैं, जो इस प्रकार हैं१. उरोविशुद्ध-जो स्वर उरस्थल में विशाल होता है। 2. कंठविशुद्ध नाभि से उत्थित जो स्वर कंठस्थल में व्याप्त होकर स्फुट रूप से व्यक्त होता है / अर्थात् जो स्वर कंठ में नहीं फटता। 3. शिरोविशुद्ध--जो स्वर शिर से उत्पन्न होकर भी नासिका के स्वर से मिश्रित नहीं होता। 4. मृदुक—जो गीत मृदु-कोमल स्वर में गाया जाता है। 5. रिभित-घोलनाबहुल आलाप द्वारा गीत में चमत्कार पैदा करना / 6. पदबद्ध-गीत को विशिष्ट पदरचना से निबद्ध करना। 7. समतालप्रत्युत्क्षेप-जिस गीत में (हस्त) ताल, वाद्य-ध्वनि और नर्तक का पादक्षेप सम हो अर्थात् एक दूसरे से मिलते हों। 8. सप्तस्वरसीभर--जिसमें (षड्ज) आदि सातों स्वर तंत्री आदि वाद्यध्वनियों के अनुरूप हों। अथवा वाद्यध्वनियां गीत के स्वरों के समान हों। 49 [10 ऊ] अक्खरसमं पयसमं तालसमं लयसमं गहसमं च / निस्ससिउस्ससियसमं संचारसमं सरा सत्त // 50 // [२६०-१०-ऊ] (प्रकारान्तर से) सप्तस्वरसीभर की व्याख्या इस प्रकार है 1. अक्षरसम-जो गीत ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत और सानुनासिक अक्षरों के अनुरूप ह्रस्वादि स्वरयुक्त हो। 2. पदसम--स्वर के अनुरूप पदों और पदों के अनुरूप स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत / 3. तालसम--- तालवादन के अनुरूप स्वर में गाया जाने वाला गीत / 4. लयसम-वीणा प्रादि वाद्यों की धुनों के अनुसार गाया जाने वाला गीत / 5. ग्रहसम-वीणा आदि द्वारा ग्रहीत स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत / 6. निश्वसितोच्छ्वसितसम-- सांस लेने और छोड़ने के क्रमानुसार गाया जाने वाला गीत / 7. संचारसम-सितार आदि वाद्यों के तारों पर अंगुली के संचार के साथ गाया जाने वाला गीत / इस प्रकार गीत स्वर, तंत्री आदि के साथ संबन्धित होकर सात प्रकार का हो जाता है। 50 विवेचन-यद्यपि षड्ज आदि के भेद से सप्त स्वरों के नाम प्रसिद्ध हैं। लेकिन अक्षरसम प्रादि इस गाथा द्वारा पन: सप्त स्वरों के नाम बताने का कारण यह है कि षडज षड़ज आदि नाम तो कंठोद्गत ध्वनिवाचक हैं और यहाँ लिपि रूप अक्षरों की अपेक्षा है / इसीलिये अनुयोगद्वार मलधारीया वृत्ति में इस गाथा को 'सत्तम्सरसीभरं'– सप्तस्वर सीभरं पद का विशेषण मानते हुए कहा है- ...... सप्तस्वरासीभरंति -- अक्षरादिभिसमायत्र तत्सप्तस्वरसीभरमिति, ते चामी सप्तस्वरः-अक्खरसम....... / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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