________________ 186] [अनुमोगद्वार [२६०-१०-आ] संगीत के छह दोषों, आठ गुणों, तीन वृत्तों और दो भणितियों को यथावत् जानने वाला सुशिक्षित-गानकलाकुशल व्यक्ति रंगमंच पर गायेगा। 46 विवेचन--सूत्रकार ने गानकला में प्रवीण व्यक्ति की योग्यता का निर्देश किया है कि वह गीत के दोष-गुण आदि का मर्मज्ञ हो / अतः आगे गीत के दोषों और गुणों आदि का निरूपण करते हैं / गीत के दोष [10 ] भीयं दुयमुप्पिच्छं उत्तालं च कमसो मुणेयव्वं / ___ काकस्सरमणुनासं छ दोसा होति गोयस्स // 47 / / [२६०-१०-इ] गीत के छह दोष इस प्रकार हैं१. भीतदोषडरते हुए गाना / 2. द्रुतदोष-उद्वेगवश शीघ्रता से गाना। 3. उत्पिच्छदोष--श्वास लेते हुए या जल्दी-जल्दी गाना / 4. उत्तालदोष तालविरुद्ध गाना / 5. काकस्वरदोष-कौए के समान कर्णकटु स्वर में गाना। 6. अनुनासदोष नाक से स्वरों का उच्चारण करते हुए गाना / 47 विवेचन-गाथार्थ सुगम है। यह छह दोष गायक को उपसनीय बना देते हैं। पाठान्तर के रूप में 'उप्पिच्छं' के स्थान पर रहस्सं' पद भी प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है अक्षरों को लधु बनाकर गाना। गीत के [10 ई] पुग्णं रतं च अलंकियं च वत्तं तहेवमविधुळे / ____ महुरं समं सुललियं अट्ठ गुणा होति गीयस्स // 48 // [२६०-१०-ई] गीत के आठ गुण इस प्रकार हैं-- 1. पूर्णगुण-स्वर के आरोह-अवरोह आदि समस्त स्वरकलाओं से परिपूर्ण गाना / 2. रक्तगुण—गेय राग से भावित होकर गाना। 3. अलंकृतगुण-विविध विशेष शुभ स्वरों से संपन्न होकर गाना। 4. व्यक्तगुण-गीत के बोलों-स्वर-व्यंजनों का स्पष्ट रूप से उच्चारण करके गाना। 5. अविघुष्टगुण-विकृति और विशृखलता से रहित नियत और नियमित स्वर से गानाचीखते-चिल्लाते हुए न गाना। 6. मधुरगुण-कर्णप्रिय मनोरम स्वर से कोयल की भांति गाना। 7. समगुण-सुर-ताल-लय आदि से समनुगत-संगत स्वर में गाना। 8. सुललितगुण-स्वरघोलनादि के द्वारा ललित-श्रोत्रेन्द्रियप्रिय सुखदायक स्वर में गाना / 48 [10 उ] उर-कंठ-सिरविसुखं च गिज्जते मउय-रिभियपदबद्धं / __ समताल पडुक्खेबं सत्तस्सरसीभरं गीयं // 49 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org