________________ 454] [अनुयोगद्वारसूत्र भावसामायिक 567. से कि तं भावसामाइए ? भावसामाइए दुविहे पण्णत्ते / तं०.--आगमतो य नोआगमतो य। [597 प्र.] भगवन् ! भावसामायिक का क्या स्वरूप है ? [597 उ.] आयुष्मन् ! भावसामायिक के दो प्रकार हैं। यथा--१. प्रागमभावसामायिक 2. नोग्रागमभावसामायिक / 598. से कि तं आगमतो भावसामाइए? आगमतो भावसामाइए भावसामाइयपयत्थाहिकारजाणए उवउत्ते। से तं आगमतो भावसामाइए। [598 प्र.] भगवन् ! आगमभावसामायिक का क्या स्वरूप है ? [598 उ.] अायुष्मन् ! सामायिक पद के अर्थाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञायक आगम से भावसामायिक है / 566. [अ] से कि तं नोआगमतो भावसामाइए ? नोआगमतो भावसामाइए जस्स सामाणिओ अप्पा संजमे णियमे तवे / तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं // 127 // जो समो सवभूएसु तसेसु थावरेसु य / तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं // 128 // [599 (अ) प्र.] भगवन् ! नोआगमभावसामायिक का क्या स्वरूप है ? [599 (अ) उ.] जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में संनिहित-लीन है, उसी को सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् का कथन है / 127 जो सर्व भूतों-त्रस, स्थावर आदि प्राणियों के प्रति समभाव धारण करता है, उसी को सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है / 128 / / विवेचन-इन दो गाथाओं में सामायिक का लक्षण एवं उसके अधिकारी का संकेत किया है। संयम मूलगुणों, नियम–उत्तरगुणों, तप-अनशन आदि तपों में निरत एवं त्रस, स्थावर, रूप सभी जीवों पर समभाव का धारक सामायिक का अधिकारी है। जिसका फलितार्थ यह हुग्रासंयम, नियम, तप, समभाव का समुदाय सामायिक है। इसीलिये समस्त जिनवाणी का सार बताते हए प्राचार्यों ने इसकी अनेक लाक्षणिक व्याख्यायें की हैं 1. बाह्य परिणतियों से विरत होकर आत्मोन्मुखी होने को सामायिक कहते हैं / 2. सम अर्थात् मध्यस्थभावयुक्त साधक की मोक्षाभिमुखी प्रवृत्ति सामायिक कहलाती है। 3. मोक्ष के साधन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की साधना को सामायिक कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org