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________________ सामायिक निरूपण [455 4. साम–सब जीवों पर मैत्री भाव की प्राप्ति सामायिक है। 5. सावद्ययोग से निवृत्ति और निरवद्ययोग में प्रवृत्ति सामायिक है / सामायिक के अधिकारी की संज्ञायें 566. [पा] जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सम्बजोवाणं / न हणइ न हणावेइ य सममणती तेण सो समणो // 129 // णत्थि य से कोइ वेसो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु / एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ // 130 // [599 (प्रा)] जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को भी प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर- अनुभव कर जो न स्वयं किसी प्राणी का हनन करता है, न दूसरों से करवाता है और न हनन की अनुमोदना करता है, किन्तु सभी जीवों को अपने समान मानता है, वही समण (श्रमण) कहलाता है / 129 जिसको किसी जीव के प्रति द्वेष नहीं है और न राग है, इस कारण वह सममन वाला होता है / यह प्रकारान्तर से समन (श्रमण) का दूसरा पर्यायवाची नाम है / 130 विवेचन-- पूर्व गाथाओं में सामायिक के अधिकारी का कथन किया था और इन दोनों गाथाओं द्वारा उनके लिये प्रयुक्त समण आदि संज्ञाओं का निरूपण किया है। जिनकी व्याख्या इस प्रकार है 1. सम्यक् प्रकार से जो मूलगुण रूप संयम, उत्तरगुण रूप नियम और अनशनादि रूप तप में निहित -रत-लीन है, वह समण कहलाता है। 2. जो शत्रुमित्रा का विकल्प न करके सभी को समान मानकर प्रवृत्ति करता है, वह समण कहलाता है। 3. जैसे मुझे दु:ख इष्ट नहीं, उसी प्रकार सभी जीवों को भी हननादि जनित दुःख प्रिय नहीं है / ऐसा अनुभव कर सभी को स्व-समान मानता है, वह सममन-समन---श्रमण है / अब उपमानों द्वारा श्रमण का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। श्रमण को उपमायें 566. [इ] उरग- गिरि-जलण-सागर-नहतल-तरुगणसमो य जो होइ / भमर-मिग-धरणि-जलरुह-रवि-पवणसमो य सो समणो / / 131 // जो सर्प, गिरि (पर्वत), अग्नि, सागर, आकाश-तल, वृक्षसमूह, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान है, वही समण है / 131 / / विवेचन–श्रमण का प्राचार भी विचारों के समान होता है, इस तथ्य का गाथोक्त उपमानों द्वारा कथन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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