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________________ [अनुयोगद्वारसूत्र श्रमण के लिये प्रयुक्त उपमायें--समण (श्रमण) के लिये प्रयुक्त उपमाओं के साथ समानता के अर्थ में सम शब्द जोड़कर उनका भाव इस प्रकार जानना चाहिये 1. उरग (सर्प) सम-जैसे सर्प दूसरों के बनाये हुए बिल में रहता है, इसी प्रकार अपना घर नहीं होने से परकृत गृह में निवास करने के कारण साधु को उरग की उपमा दी है। 2. गिरिसम-परीषहों और उपसर्गों को सहन करने में पर्वत के समान अडोल–अविचल होने से साधु गिरिसम हैं। 3. ज्वलन (अग्नि) सम-तपोजन्य तेज से समन्वित होने के कारण साधु अग्निसम है / अथवा जैसे अग्नि तृण, काष्ठ आदि इंधन से तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार साधु भी ज्ञानाभ्यास से तृप्त नहीं होने के कारण अग्निसम हैं / 4. सागरसम-जैसे सागर अपनी मर्यादा को नहीं लांघता इसी प्रकार साधु भी अपनी प्राचारमर्यादा का उल्लंघन नहीं करने से सागरसम हैं / अथवा समुद्र जैसे रत्नों का आकर होता है वैसे ही साधु भी ज्ञानादि रत्नों का भंडार होने से सागरसम हैं। 5. नभस्तलसम ---जैसे आकाश सर्वत्र अवलंबन से रहित है, उसी प्रकार साधु भी किसी प्रसंग पर दूसरों का प्राश्रय--अवलंबन सहारा नहीं लेने से आकाशसम हैं। 6. तरुगणसम-जैसे वृक्षों को सींचने वाले पर राम और काटने वाले पर द्वेष नहीं होता, वे सर्वदा समान रहते हैं. इसी प्रकार साध भी निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में समवत्ति वाले होने से तरुगण के समान हैं। 7. भ्रमरसम-जैसे भ्रमर अनेक पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपनी उदरपूर्ति करता है, उसी प्रकार साधु भी अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा सा आहार ग्रहण करके उदरपूर्ति करने से भ्रमरसम हैं। 8. मृगसम-जैसे मृग हिंसक पशुओं, शिकारियों आदि से सदा भीतचित्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी संसारभय से सदा उद्विग्न रहने के कारण मृगसम हैं। 9. धरणिसम--पृथ्वी जैसे सब कुछ सहन करती है, इसी प्रकार साधु भी खेद, तिरस्कार, ताड़ना आदि को समभाव से सहन करने वाले होने से पृथ्वीसम हैं / 10. जलरुहसम-जैसे कमल पंक (कीचड़) में पैदा होता है, जल में संबंधित होता है किन्तु उनसे निलिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी कामभोगमयी संसार में रहते हुए भी उससे अलिप्त रहने के कारण जलरुह (कमल) सम हैं। 11. रविसम-जैसे सूर्य अपने प्रकाश से समान रूप में सभी क्षेत्रों को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार साधु अपने ज्ञान रूपी प्रकाश को देशना द्वारा सर्वसाधारण को समान रूप से प्रदान करने वाले होने से रविसम हैं। 12. पवनसम—जिस प्रकार वायु की सर्वत्र अप्रतिहत गति होती है, उसी प्रकार साधु भी सर्वत्र अप्रतिबद्ध विचरणशील होने से पवनसम हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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