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________________ नामाधिकार निरूपण] [222 समोपनाम 307. से कितं समीवनामे ? समोबनामे गिरिस्स समीवे णगरं गिरिणगरं, विदिसाए समीवे णगरं बेदिसं, देनाए समीवे णगरं बेनायडं, तगराए समीवे जगरं तगरायडं / से तं समीवनामे / [307 प्र.] भगवन् ! समीपनाम किसे कहते हैं ? [307 उ.] आयुष्मन् ! समीप अर्थक तद्धित प्रत्यय-निष्पन्ननाम-गिरि के समीप का नगर गिरिनगर, विदिशा के समीप का नगर वैदिश, वेन्ना के समीप का नगर वेन्नातट (वैन्न), तगरा के समीप का नगर तगरातट (तागर) आदि रूप जानना चाहिये। विवेचन--सूत्रोक्त नाम समीप-निकट-पास अर्थ में तद्धित 'अण्' प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होने के कारण समीपार्थबोधक तद्धितज नाम हैं / संयथनाम 308. से किं तं संजूहनामे ? संजहनामे तरंगवतिक्कारे मलयवतिकारे अत्ताणुसद्विकारे बिदुकारे। से तं संजूहनामे / [308 प्र. भगवन् ! संयुथनाम किसे कहते हैं ? [308 उ.] आयुष्मन् ! तरंगवतीकार, मलयवतीकार, आत्मानुषष्ठिकार, बिन्दुकार आदि नाम संयूथनाम के उदाहरण है। विवेचन -- सूत्र में संयूथनाम का स्वरूप बतलाने के उदाहरणों का उल्लेख किया है। जिसका प्राशय इस प्रकार है---- ग्रंथरचना को संयूथ कहते हैं / यह ग्रंथरचना रूप संयूथ जिस तद्धित प्रत्यय से सूचित किया जाता है, वह संयूथार्थ तद्धित प्रत्यय से निष्पन्ननाम संयूथनाम कहलाता है। मूल में तरंगवतीकार, मलयवतीकार जो निर्देश किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि तरंगवती नामक कथा ग्रन्थ का करनेवाला (लेखक) तरंगवतीकार, मलयवती ग्रंथ का कर्ता मलयवतीकार कहलाता है / इसी प्रकार प्रात्मानुषष्ठि, बिन्दुक आदि ग्रन्थों के लिये भी समझ लेना चाहिये। ऐश्वर्यनाम 306. से किं तं ईसरियनामे ? ईसरियनामे राईसरे तलवरे माडंबिए कोडुबिए इन्भे सेट्ठी सत्यवाहे सेणावई। से तं ईसरियनामे। [309 प्र.] भगवन् ! ऐश्वर्यनाम का क्या रूप है ? [309 उ.] आयुष्मन् ! ऐश्वर्य द्योतक शब्दों से तद्धित प्रत्यय करने पर निष्पन्न ऐश्वर्यनाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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