________________ आनुपूर्वी निरूपण] [95 में अाकाश के तीन प्रदेशों में स्थित त्रिप्रदेशिक आदि स्कन्ध ही प्रानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ माने हैं किन्तु एक या दो अाकाशप्रदेशों में स्थित त्रिप्रदेशिक आदि स्कन्ध प्रानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ नहीं हैं / क्योंकि यह पूर्व में कहा जा चुका है कि विप्रदेशिक स्कन्ध अाकाश के एक प्रदेश में भी, दो प्रदेशों में भी और तीन प्रदेशों में भी अवगाढ हो सकता है। इसलिये क्षेत्रानुपूर्वी में यदि त्रिप्रदेशिक स्कन्ध अाकाश के एक प्रदेश में अवगाढ है तो वह क्षेत्र की अपेक्षा अनानुपूर्वी और यदि दो प्रदेशों में अवगाढ है तो अवक्तव्यक शब्द का वाच्य होगा / इसी तरह असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अाकाय के एक. दो, तीन प्रादि प्रदेशों में और असंख्यात प्रदेशों में भी ठहर सकता है। प्रतः क्षेत्र की अपेक्षा यह असंख्याताणक स्कन्ध भी एक प्रदेश में स्थित होने पर अनानुपूर्वी माना जाएगा और दो प्रदेशों में अवगाद होने पर प्रवक्तव्यक तथा तीन से लेकर असंख्यात प्रदेशों तक में स्थित होने पर प्रानुपूर्वी माना जायेगा / इस दृष्टि को ध्यान में रखकर क्षेत्र की अपेक्षा प्रानुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक इन एकवचनान्त एवं बहुवचनान्त पदों के असंयोग और संयोग से बनने वाले छब्बीस भंगों का वाच्यार्थ भंगोपदर्शनता में समझ लेना चाहिये / नगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वी को समवतारप्ररूपणा 148. [1] से कि तं समोयारे ? समोयारे णेगम-ववहाराणं प्राणुपुत्वीदव्वाई कहि समोयरंति ? किं आणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुब्वोदब्वेहि समोयरंति ? अवत्तन्वयदव्वेहि समोयरंति ? आणुपुटवीदव्वाइं आणुपुवीदवेहि समोयरंति, नो अणाणुपुव्वोदवेहि समोयरंति नो अवत्तन्वयदव्वेहि समोयरंति / 148-1 प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत अानुपूर्वी द्रव्यों का समावेश कहाँ होता है ? क्या प्रानुपूर्वी द्रव्यों में, अनानुपूर्वी द्रव्यों में अथवा प्रवक्तव्यक द्रव्यों में समावेश होता है ? [148-1 उ. प्रायुष्मन् ! प्रानुपूर्वी द्रव्य पानुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं, किन्तु अनानुपूर्वी द्रव्यों और प्रवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट नहीं होते हैं / [2] एवं तिणि वि सट्टाणे समोयरंति ति भाणियन्वं / से तं समोयारे / [2] इस प्रकार तीनों स्व-स्व स्थान में ही समाविष्ट होते हैं / यह ममवतार का स्वरूप है। विवेचन -सूत्र में समवतार का स्वरूप बताया है। ममवतार का अर्थ है समाविष्ट होना, एक का दूसरे में मिल जाना। यह समबनार स्वजाति रूप द्रव्यों में होता है. परजाति रूप में नहीं / यही समवतार का स्वरूप है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org