________________ 96] [अनुयोगद्वारसूत्र नैगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वो-अनुगमप्ररूपणा 146. से कि तं अणुगमे ? अणुगमे गविहे पण्णत्ते / तं जहा-- संतपयपरूवणया 1 दव्वपमाणं 2 च खेत्त 3 फुसणा 4 य / कालो 5 य अंतरं 6 भाग 7 भाव 8 अप्पाबहुं 6 चैव // 10 // {149 प्र.] भगवन् ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? [149 उ.] अायुष्मन् ! अनुगम नौ प्रकार का कहा है / यथा-(गाथार्थ) 1 सत्पदप्ररूपणता, 2 द्रव्य प्रमाण, 3 क्षेत्र, 4 स्पर्शना, 5 काल, 6 अंतर, 7 भाग, 8 भाव और 9 अल्पबहुत्व / विवेचन--सूत्र में अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी संबन्धी अनुगम के भेदों के नाम गिनाये हैं / इन नौ भेदों के लक्षण पूर्वोक्त अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी-अनुगम के अनुरूप समझ लेना चाहिये। अब यथाक्रम इन नौ भेदों की वक्तव्यता का प्राशय स्पष्ट करते हैं। अनुगमसंबन्धी सत्पदप्ररूपणता 150. से कि तं संतपयपरूवणया ? णेगम-ववहाराणं खेत्ताणुपुब्बीदव्वाइं कि अस्थि पत्थि ? णियमा अस्थि / एवं दोणि वि / [150 प्र.) भगवन् ! सत्पदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वीद्रव्य (मत्-अस्तित्व-रूप) हैं या नहीं ? [150 उ.] आयुष्मन् ! नियमतः हैं। इसी प्रकार दोनों अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये कि वे भी नियमत:-निश्चित रूप से हैं। अनुगमसंबन्धी द्रव्यप्रमाण 151. णेगम-बवहाराणं आणुपुवीदव्वाइं कि संखेज्जाइं असंखेज्जाई अणंताई ? मो संखेज्जाइं नो अणंताई, नियमा असंखेज्जाई / एवं दोण्णि बि / [151 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं? [151 उ.] अायुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत प्रानुपूर्वी द्रव्य न तो संख्यात हैं और न अनन्त हैं किन्तु नियमतः असंख्यात हैं। इसी प्रकार दोनों अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के लिये भी समझना चाहिये। विवेचन--सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का प्रमाण असंख्यात बतलाया है। क्योंकि आकाश के तीन प्रदेशों में स्थित द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा प्रानुपूर्वी रूप हैं और तीन ग्रादि प्रदेश वाले स्कन्धों के आधारभूत क्षेत्रविभाग असंख्यातप्रदेशी लोक में असंख्यात हैं। इसलिये द्रव्य की अपेक्षा बहुत प्रानुपूर्वी द्रव्य भी आकाश रूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों में तीन, चार, पांच, छह आदि से लेकर अनन्तप्रदेश(परमाणु)वाले अनेक आनुपूर्वीद्रव्य अवगाढ होकर रहते हैं। अत: ये सब द्रव्य तुल्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org