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________________ t) व्युत्पति मूल क्रिया में लगा हो। सारांश यह है, पूर्व-पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म और सूक्ष्मतर विषय वाला होता है; और उत्तर-उत्तर नय का विषय पूर्व-पूर्व नय के विषय पर ही आधत है। और प्रत्येक का विषय क्षेत्र उत्तरोत्तर त्यून होने से इनका परस्पर में पौरापर्य सम्बन्ध है। नयद्वार के विवेचन के साथ ही चारों प्रकार के अनुयोगद्वार का वर्णन पूर्ण होता है / इस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्द-सिद्धान्तों का विवेचन है। उपक्रम-निक्षेप शैली की प्रधानता और साथ ही भेद-प्रभेद की प्रचुरता होने से यह आगम अन्य प्रागमों से क्लिष्ट है तथापि जनदर्शन के रहस्य को समझाने के लिए यह अतीव उपयोगी है। जैनागम की प्राचीन चणि-टोकानों के प्रारम्भ के भाग को देखते हए ज्ञात होता है कि समग्र निरूपण में वही पद्धति अपनाई गई है जो अनुयोगद्वार में है। यह सिर्फ श्वेताम्बरसम्मत जैन आगमों को टीकानों पर ही नहीं लागू होता वरन् दिगम्बर अपनाई है। इसका प्रमाण दिगम्बरसम्मत षट्खण्डागम आदि प्राचीन शास्त्रों की टीका से मिलता है प्राचीनता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अनुयोगद्वार में सांस्कृतिक सामग्री भी प्रचार मात्रा में है। संगीत के सात स्वर, स्वरस्थान, गायक के लक्षण, ग्राम, मूच्र्छनाएँ, संगीत के गुण और दोष, नवरस, सामुद्रिक लक्षण, 108 अंगुल के माप वाले, शंखादि चिह्न वाले, मस, तिल प्रादि व्यंजन वाले उत्तम पुरुष प्रादि बताये गये हैं। निमित के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला है, जैसे-आकाशदर्शन और नक्षत्रादि के प्रशस्त होने पर सुवृष्टि और अप्रशस्त होने पर भिक्ष आदि / इस तरह इसमें सांस्कृतिक व सामाजिक वर्णन भी किया गया है। 82 अनुयोगहार के रचयिता या संकलनकर्ता आरक्षित माने जाते हैं। आर्य रक्षित से पहले यह पद्धति थी कि प्राचार्य अपने मेधावी शिष्यों को छोटे-बड़े सभी सूत्रों की वाचना देते समय चारों अनुयोगों का बोध थे। उस वाचना का क्या रूप था? वह आज हमारे समक्ष नहीं है, तथापि इतना कहा जा सकता है कि बे बाचना देते समय प्रत्येक सूत्र पर आचारधर्म, उसके पालनकर्ता, उनके साधन-क्षेत्र का विस्तार और नियमग्रहण की कोटि एवं भंग आदि का वर्णन कर सभी अनुयोगों का एक साथ बोध कराते थे। इसी वाचना को अपृथक्त्वानुयोग कहा गया है। प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि जब चरणकरणानुयोग आदि चारों अनुयोगों का प्रत्येक सूत्र पर विचार किया जाय तो वह अपृथक्त्वानुयोग है। अपृथक्त्वानुयोग में विभिन्न नपरष्टियों का अवतरण किया जाता है और उसमें प्रत्येक सूत्र पर विस्तार से चर्चा की जाती है।८३ आर्य वनस्वामी तक कालिक आगमों के अनुयोग (वाचना) में अनुयोगों का अपृथक्त्व रूप रहा / उसके पश्चात प्राय रक्षित ने कालिक श्रुत और दृष्टिवाद के पृथक् अनुयोग की व्यवस्था की।४ कारण निमार्यरक्षित के धर्मशासन में ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी और बादी सभी प्रकार के सन्त थे। उन शिष्यों में पुष्यमित्र के तीन विशिष्ट महामेधावी शिष्य थे। उनमें से एक का नाम दुर्बलिकापुष्यमित्र, दूसरे का धृतपुष्यमित्र और तीसरे का वस्त्रपुष्यमित्र था। ध्रतपुष्यमित्र और वस्त्रपुष्यमित्र की लब्धि का यह प्रभाव था कि प्रत्येक गृहस्थ के घर से श्रमणों को घृत और वस्त्र सहर्ष उपलब्ध होते थे। दुर्बलिकापुष्यमित्र निरन्तर स्वाध्याय में तल्लीन रहते थे। 82. 'नन्दोसुत्तं अनुयोगदाराई' की प्रस्तावना। -पृष्ठ 52 से 70 83. अपुहुत्तमेगभावो सुत्ते सुत्ते सुवित्थरं जत्थ / भन्नंतणुप्रोगा चरणधम्मसंखाणदल्याण // -आवश्यक मलयगिरि वृत्ति, पृ. 383 84. जावंति अज्जवइरा अपुहुत्तं कालियाणुनोगे य / तेणारेण पुहुत्त कालियसुय दिट्टिवाये य // (वहीं) [41] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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