________________ वाले—ग्रहण करने वाले अभिप्राय को ऋजुसूत्रनय कहते हैं। 8 भूतकाल विनष्ट और भविष्यकाल अनुत्पन्न होने से वह केवल वर्तमान कालवी पर्याय को ही ग्रहण करता है। ऋजूसूत्रनय वर्तमान क्षण की पर्याय को ही प्रधानता देता है / जैसे—-मैं इस समय सुख भोग रहा हूँ। यहाँ पर क्षणस्थायी सुखपर्याय को सुख मानकर उस सुरवपर्याय का प्राधार जो प्रात्मद्रव्य है, उसको गौण कर दिया गया है। पर्यायवाची शब्दों में भी काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग के भेद से अर्थभेद मानना शब्दनय है।७६ विभिन्न संयोगों के आधार पर जो शब्दों में अर्थभेदी कल्पना की जाती है, वह शब्दनय है / पर्यायवाची शब्दों में भिन्न अर्थ को घोतित करना नियुक्ति थानी व्युत्पत्ति के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद स्वीकार करने वाला ममभिरूढनय है। इन्द्र, शक, पुरन्दर, प्रभति शब्द पर्यायवाची हैं। तथापि भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति से भिन्न-भिन्न अर्थ को धोतित करते हैं। शब्दनय तो समान काल, कारक, लिग आदि युक्त पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ मानता है। किन्तु कारक आदि का भेद होने पर ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थ भेद स्वीकार करता है। पर कारक आदि का भेद न होने पर पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ मानता है पर समभिरूढनय तो पर्यायभेद होने से ही उन शब्दों में अर्थभेद मानता है।८० जिस ममय पदार्थों में जो क्रिया होती है, उस समय क्रिया के अनुकूल शब्दों से अर्थ के प्रतिपादन करने को एवं भूतनय कहते हैं।६१ जैसे-~-ऐश्वर्य का अनुभव करते समय इन्द्र, समर्थ होने के समय शक्र और नगरों का नाश करते समय पुरन्दर कहना। एवंभूतनय निश्चय प्रधान है, शब्दों की जो व्युत्पत्ति है उस व्युत्पत्ति का निमित्तभुतक्रिया जव पदार्थ में होती है तब वह पदार्थ को उस शब्द का बाच्य मानता है। इस प्रकार सातों नय पूर्व-पूर्व नय से उत्तर-उत्तर नयों का विषय सुक्ष्म होता चला गया। नंगमनय सामान्य और विशेष भेद-अभेद दोनों को ग्रहण करता है। जबकि संग्रहनय की दृष्टि उससे संकीर्ण है, वह सामान्य और अभेद को विषय करता है। संग्रहनय से भी व्यवहारनय का विषय कम है। संग्रहनय जहाँ समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, और व्यवहारनय संग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से ग्रहण करता है। ऋजुसूत्रनय का विषय व्यवहारनय से कम है, कि व्यवहारनय त्रैकालिक विषय की सत्ता को मानता है। जबकि ऋजुमुत्रनय से वर्तमान पदार्थ का ही परिज्ञान होता है। ऋजुमुत्रनय की अपेक्षा शब्दनय का विषय कम है। क्योंकि शब्दनय काल आदि के भेद से वर्तमान पर्याय में भी भेद स्वीकार करता है। शब्दमय वर्तमान पर्याय के वाचक विविध पर्यायवाची शब्दो में से काल, लिंग, संख्या, पुरुष प्रादि व्याकरण मम्बन्धी विषमतानों का निराकरण करके केवल' समान काल, लिंग आदि शब्दों को एकार्थवाची मानता है। जबकि ऋजूसूत्रनय में काल ग्रादि का भेद नहीं होता / शब्दनय से भी समभिरूढ का विषय कम है। वह पर्याय और व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद मानता है। जबकि शब्दनय पर्यायवाची शब्दों में किसी भी प्रकार का भेद नहीं मानता / समभिरूडनय इन्द्र, शक्र आदि एकार्थवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की दृष्टि से भिन्न अर्थवाची मानता है। वह किमी एक ही शब्द को वाचक रूप में रूढ करता है। पर वह सूक्ष्मता शब्दनय में नहीं है। एवंभूतनय का विषय समभिरूढनय से भी न्यून है। वह अर्थ को भी उस शब्द का वाच्य तभी मानता है, जब अर्थ अपनी 78. (क) ऋजु वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्र प्राधान्यत: सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः / (ख) पच्चुप्पलग्गाही उज्जुसुनो णयविही मुणे अव्वो। -जैनतर्कभाषा 79. कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः / कालकारकलिंगसंख्यापुरुषोपसर्गाः कालादयः / --जैनतर्क भाषा 20. पर्यायशब्देषु नियुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहन् समभिरूढः / -जैनतर्कभाषा 81. येनात्मनाभूतस्तेनैवाध्यवसायतीति एवंभूतः। -सर्वार्थसिद्धि 1133 [ 40 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org