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________________ के प्रकार हैं, उतने ही नय भी हैं / 16 इस तरह नय के अनन्त भेद हो सकते हैं। तथापि उनका समाहार करते हुए और समझने की सरलता की दृष्टि से उन सब वनन-पक्षों को अधिक से अधिक सात भेदों में विभाजित कर दिया है / अनुयोगद्वार में सात नयों का वर्णन है। 1. नेग मनय, 2. संग्रहनय, 3. व्यवहारनय, 4. ऋजुसूत्रनय, 5. शब्दनय, 6. समभिरूढनय 7. एवं भूतनय / ठाणांग 67 और प्रज्ञापना 8 में भी सात नयों का वर्णन है। सात नयों में शब्द समभिरूढ़ और एवं भूत ये तीन शब्दनय है 66 और नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थनय हैं। तीन शब्द को विषय कहते हैं, अतः शब्दनय है और शेष चार अर्ध को अपना विषय बनाते हैं इसलिये अर्थनय सामान्य और विशेष प्रादि अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नैगमनय है।०० प्रस्तुत नय सत्तारूप सामान्य को द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व रूप अवान्तर सामान्य को असाधारण रूप विशेष तथा पररूप से व्यावृत्त और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को जानता है अथवा दो द्रव्यों में से, दो पर्यायों में से तथा द्रव्य और पर्याय में से किसी एक को मुख्य और दूसरे को गौण करके जानना नैगमनय है।" विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य रूप से जानना संग्रहनय है / 72 जैसे---जीव कहने से त्रस, स्थावर प्रभति सभी प्रकार के जीवों का परिज्ञान होता है, भेद महित सभी पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के विरोध के बिना एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला संग्रहनय है / 73 दूसरे शब्दों में समस्त पदार्थों का सम्यक प्रकार से एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।०४ अथवा यों भी कह सकते हैं कि व्यवहार की अपेक्षा न करके सतादि रूप से सकल पदार्थों का संग्रह करना संग्रहनय है। संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों का योग्य रोति से विभाग करने वाला अभिप्राय व्यवहारनय है।६ संग्रहनय जिस अर्थ को ग्रहण करता है. उस अर्थ का विशेष रूप से बोध करने के लिए उसका पृथक्करण अावश्यक होता है। यह सत्य है, संग्रहनय में सामान्य मात्र का ही ग्रहण होता है तथापि उस सामान्य का रूप क्या है ? इसका विश्लेषण करने के लिए व्यवहार की जरूरत होती है। इसलिए सामान्य को भेदपूर्वक ग्रहण करना व्यवहारनय है। वर्तमानकालवर्ती पर्याय को मान्य करने 66. जावड्या वयणपहा तावइया चेव होन्ति णयवाया। -सन्मतितकं, गाथा 47 67. सत्त मूलनया पं. तं.–नेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुते, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते / -स्थानांग 7552 68. से कि त णयगती ? जण भेगमसंगहवबहारउज्जुसुयससमभिरूढएवंभूयाणं नयाण जागती, अथवा सचणया वि जं इच्छति / प्रज्ञापना, पन्ना 16 69. तिहं सद्दनयाण। -अनुयोग द्वार 148 70. सामान्यविशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नंगमः। -जैनतकभाषा 71. णेगेहिं भाणे हि मिय इत्ति णेगमस्स य निरूती। -अनुयोग द्वारसूत्र 72. सामान्यमात्रग्राही परामर्श : संग्रहः / - जैनतर्कभाषा 73. स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदान् विशेषेण समस्तग्रहणात् संग्रहः / —सर्वार्थसिद्धि 1133 74. सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते / निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथासति विभाव्यते // -श्लोकवातिक 1133 75. व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहकः संग्रहनयः। --धवलाखण्ड 13 76. संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसंधिना क्रियते स व्यवहारः / - जैनतर्कभाषा 77. संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवह्रियते इति व्यवहारः। -आप्तपरीक्षा 9 [ 39] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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